
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सूरज पी.सिंह की इक छोटी सी कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
तुम होते गमले की पौध
और जो मैं कहीं
माटी की ऊर्वरा बन
तुम्हारी जड़ों में पड़ा होता,
तब भी क्या तुम मुझे
अपने भीतर आने से रोक देते?
..और, जो मैं फूल बनकर
तुम्हारे वृंत पर खिल जाता,
बताओ,
फिर तुम क्या करते?
और जो मैं कहीं
माटी की ऊर्वरा बन
तुम्हारी जड़ों में पड़ा होता,
तब भी क्या तुम मुझे
अपने भीतर आने से रोक देते?
..और, जो मैं फूल बनकर
तुम्हारे वृंत पर खिल जाता,
बताओ,
फिर तुम क्या करते?
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सूरज पी. सिंह/ शिक्षा : एम. ए. ‘प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व’। ‘भारतीय संस्कृति’ में यूजीसी नेट उत्तीर्ण।
अभिरुचियाँ :कविता, फोटोग्राफी,जंगल-हरियाली,प्रकृति और मानव-संस्कृति से लगाव।
संप्रति: स्वतंत्र अनुवाद कार्य।
पता:सूरज पी. सिंह, A/301, हंसा अपार्टमेंट, साबेगांव रोड दिवा (पूर्व), थाणे, मुम्बई
ई-मेल : surajprakash.prakash@gmail.com
suraj singh ji aapne to kamaal kar diya.........bahut sundar likhte hai aap ........pratyek pankti ati sundar
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रेममय मनोभाव। सूरज जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंछोटी सी पर बड़ी प्यारी सी कविता. ..बधाई .
जवाब देंहटाएंछोटी सी पर बड़ी प्यारी सी कविता. ..बधाई .
जवाब देंहटाएंकविता छोटी है पर भावार्थ गहरे हैं. सूरज जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंछोटी मगर गहरे भाव लिये कविता बहुत सुन्दर है।
जवाब देंहटाएंबिलकुल नूतन विचारों से सजी कविता ।
जवाब देंहटाएंअजी अभी भी देर नहीं हुई है, जाकर कह दीजिये...अच्छे भाव.
जवाब देंहटाएंवाह ...प्रेममय सरस मनुहार मन हर ले गयी...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना...
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ...।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए शब्द नहीं ...... पडते ही मुंह से निकला...ओह..ओह...लाजबाब...
जवाब देंहटाएंप्रशतुति के लिये आभार..
हौसलाफ़जाई का सुक्रिया...आपके प्रेम का सतत आकांछी...