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सोमवार, 28 मार्च 2011

गजल : उपेन्द्र 'उपेन'

शर्मा गई चांदनी जब रूख से नकाब हट देखा

इस ज़मीन पर भी एक सुंदर सा चाँद खिला देका

फ़ैल गयी हर जगह रोशनी रोशन हो उठी फिजां

बड़े आश्चर्य से सबने हुश्न -ऐ- चिराग जला देखा

छिपता फिर रहा चाँद बादलों में इधर से उधर

इस चाँद के आगे सबने उस चाँद को बुझा- बुझा देखा

छाई रही मस्ती मदहोश हो गए देखने वाले

रूक गयी धड़कने सबने वक्त भी रुका रुका देका

खामोश हो गया चाँद खामोश हो गयें उसके चर्चे

"उपेन्द्र " हर चर्चे में सिर्फ तेरा हुश्न शामिल हुआ देखा.
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नाम-उपेन्द्र 'उपेन' । जन्म - 22 अक्टूबर सन् 1974 को आजमगढ़ में । प्रारंभिक तथा स्कूली शिक्षा आजमगढ़ में, फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक. पू्र्वांचल विश्वविद्यालय (शिवली नेशनल कालेज,आजमगढ़) से हिन्दी साहित्य में पीजी एवं अन्नामलाई विश्वविद्यालय से विज्ञापन में पीजी डिप्लोमा। कविता-कहानी का लेखन एवं विज्ञापन में फ्रीलांसिग कापीराइटिंग भी । पचास के करीब कहानियां, कवितायें व लघुकथायें विभिन्न पत्र-पत्रिका में प्रकाशित। संप्रति- रक्षा मंत्रालय।
संपर्क : upen1100@yahoo.com
अंतर्जाल पर सृजन_शिखर के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 21 मार्च 2011

दिल क्यूँ चाहता है : अभिजीत शुक्ल

मैं जानता हूँ की ये सफ़र हमारा साथ कहीं छुड़ा देगा,


पर दिल क्यूँ चाहता है की तुम दो कदम साथ चलो?


मैं जानता हूँ सुबह का सूरज मुझे नींद से जगा देगा,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम इन आँखों में रात करो?


मैं जानता हूँ की प्यासा ही रह जाऊंगा मैं शायद,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम मेरी बरसात बनो?


मैं जानता हूँ अंत नहीं कोई इस सिलसिले का,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम इसकी शुरुआत करो !!
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नाम- अभिजीत शुक्ल
शिक्षा- B.Tech. (IT-BHU), PGDBM (XLRI)
वर्तमान शहर- जमशेदपुर
अंतर्जाल पर Reflections के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 14 मार्च 2011

तेरा इठलाना : मुकेश कुमार सिन्हा

ऐ नादान हसीना
क्यूं तेरा इठलाना
तेरा इतराना
ऐसे लगता है जैसे
बलखाती नदी की
हिलोंरे मरती लहरों
का ऊपर उठाना
और फिर नीचे गिरना


क्यूं तुम
फूलों से रंग चुरा कर
भागती हो शरमा कर
बलखा कर


क्यूँ तेरा हुश्न
होश उड़ाए
फिर नजरो से
दिल में छा जाये


क्यूं तेरे आने
की एक आहट
भर दे ख्यालो में
सतरंगी रंगत


क्यूं इसके
महके महके आलम से
इतने दीवाने
हो जाते हैं हम


क्यूं जगे अरमां
जो कहे फलक तक साथ चल
ऐ मेरे दिलनशी
हमसफ़र


पर क्यूं
दिलरुबा जैसे ही नजरों
से ओझल हुई
लगता है
चांदनी
बिखर गयी.....


फिर भी क्यूं
उसके जाने पर भी
खयालो में उसका अहसास
और उसकी तपिश
देती है एक शुकून....
एक अलग सी खुशबू
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मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथधाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा,पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है,तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है..काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता. पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ.क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ, खुश हूँ.अंतर्जाल पर जिंदगी की राहें के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 7 मार्च 2011

तेरा अहसास : सुमन 'मीत'

तेरा अहसास..‘मन’ मेरे

मेरे वजूद को

सम्पूर्ण बना देता है

और मैं

उस अहसास के

दायरे में सिमटी

बेतस लता सी

लिपट जाती हूँ

तुम्हारे स्वप्निल स्वरूप से

तब

मेरा वजूद

पा लेता है

एक

नया स्वरूप

उस तरंग सा

जो उभर आती है

शांत जल में

सूर्य की पहली किरण से

झिलमिलाती है ज्यूँ

हरी दूब में

ओस की नन्ही बूंद

तेरी वो खुली बाहें

मुझे समा लेती हैं

जब

अपने आगोश में

तो ‘मन’ मेरे

मेरा होना सार्थक

हो जाता है

मेरा अस्तित्व

पूर्णता पा जाता है

और उस

समर्पण से अभिभूत हो

मेरी रूह के

जर्रे जर्रे से

तेरी खुशबू आने लगती है

और

महक जाता है

मेरा रोम रोम......

पुलकित हो उठता है

एक ‘सुमन’ सा

तेरे अहसास का

ये दायरा

पहचान करा देता है

मेरी

मेरे वजूद से

और

मेरे शब्दों को

आकार दे देता है

मेरी कल्पना को

मूरत दे देता है....

मैं

उड़ने लगती हूँ

स्वछ्न्द गगन में

उन्मुक्त

तुम संग

निर्भीक ,निडर

उस पंछी समान

जिसकी उड़ान में

कोई बन्धन नहीं

बस हर तरफ

राहें ही राहें हों.....

‘मन’ मेरे

तेरा ये अहसास

मुझे खुद से मिला देता है

मुझे जीना सिखा देता है

‘मन’ मेरे.....

‘मन’ मेरे
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सुमन 'मीत'/मण्डी, हिमाचल प्रदेश/ मेरे बारे में-पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”!अंतर्जाल पर बावरा मन के माध्यम से सक्रियता.