सोमवार, 9 मई 2011

एक प्रेमलता कुम्भलाई सी : प्रकाश यादव "निर्भीक"

हर शाम का वह पहर
जब हर किसी में होड होती है
जल्दी जाने को अपना घर
शहर की तेज रफ़्तार जिन्दगी में
होती नहीं किसी को तनिक फ़िकर
एक प्रेमलता के दर्द की
जिसका पत्थर ही बना हमसफ़र
खडी है सहारे जिसके आजतक
निहारती रही अपलक उसकी डगर
जो किया था प्रेमालाप कभी
इसी जगह इसी मोड पर
प्रेमलता कुम्भला सी गई अब
प्रियतम के दीदार को एक नजर
मिली न छाया स्नेह का उसे
झुलसती प्रतीक्षा में दिनभर
रजनी आई पास जब
साथ लेकर जख्में जिगर
विह्वल हो गई वह अचानक
थरथरा उठे व्याकुल अधर
पर कह न सकी दर्द दिल का
रोती रही दोनों रातभर
सुबह होते ही ये अश्रुकण
शबनम बन गये बिखर
रात साथ छोड चली गई
संग रह गया फिर वही पत्थर
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प्रकाश यादव "निर्भीक"
अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया लिखा है सर!

    सादर

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  2. सुन्दर प्रस्तुति...प्रकाश जी को इस सुन्दर रचना के लिए बधाई.

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  3. खुबसूरत शब्दों के माध्यम से अनुपम कविता..बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  4. निर्भीख जी की रचना बहुत अच्छी लगी।-- एक प्रेमलता कुम्भलाई सी--- वाह। धन्यवाद।

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