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मंगलवार, 3 मई 2011

क्यूं छुपाऊं तुमसे - सूरज पी. सिंह

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सूरज पी. सिंह की कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

तुम्हीं उतरते हो
घास की पत्तियों में बनकर मिठास
जल की शीतलता तुमसे ही है
नदियों की गति तुम ही तो हो
तुम्हीं, तपन बनकर
सूरज में रहते हो
और तुम्हीं
चांदनी की रेशम भी बुनते हो.

माटी में कोई बीज रखूं, तो
अंकुर बन कौन फूटता है?
पेड़ों से गुज़रती हवाओं की सरसराहट
एक रहस्य है
खोलने बैठूं, तो
तुम्हारी ही आहट सुन जाता हूं.

एक गिलहरी
मेरी ओर प्यार से देखती है
एक गोरैया
फुदककर मेरे बाज़ू बैठती है
एक कली
खिलकर, मेरी ओर
थोड़ा रंग, थोड़ी ख़ुशबू उछालती है.
भला क्या करूं मैं, कि इन सबमें
मुझे तेरी शरारत झांकती-सी लगती है?

हर तरफ़, जो तुम ही तुम हो
कहां रखूं
मैं अपना प्यार तुमसे छुपाकर ?

सूरज पी. सिंह
A/301, हंसा अपार्टमेंट, साबेगांव रोड दिवा (पूर्व), थाणे, मुम्बई

6 टिप्‍पणियां:

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

vaah bhayi vaah mzaa aa gyaa shbdon ke indrdhanush ne to bas is rchnaa ko sptrngi bna adiya abdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan

ZEAL ने कहा…

माटी में कोई बीज रखूं, तो
अंकुर बन कौन फूटता है?
पेड़ों से गुज़रती हवाओं की सरसराहट
एक रहस्य है
खोलने बैठूं, तो
तुम्हारी ही आहट सुन जाता हूं....

Beautiful creation !

.

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

कहाँ रखूँ मैं अपना प्यार
तुमसे छुपाकर?
--
इस सुंदर कविता ने मन जीत लिया!

kshama ने कहा…

हर तरफ़, जो तुम ही तुम हो
कहां रखूं
मैं अपना प्यार तुमसे छुपाकर ?Nihayat sundar,komal rachana!

कविता रावत ने कहा…

एक गिलहरी
मेरी ओर प्यार से देखती है
एक गोरैया
फुदककर मेरे बाज़ू बैठती है
एक कली
खिलकर, मेरी ओर
थोड़ा रंग, थोड़ी ख़ुशबू उछालती है.
भला क्या करूं मैं, कि इन सबमें
मुझे तेरी शरारत झांकती-सी लगती है?
..बहुत सुन्दर प्रेममयी रचना ...
प्रस्तुति के लिए आभार

Udan Tashtari ने कहा…

वाह, बहुत सुन्दर!!