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सोमवार, 27 सितंबर 2010

मिलन को आतुर पंछी

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती वंदना गुप्ता जी की कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

आ ख्यालों की गुफ्तगू
तुझे सुनाऊँ
एक वादे की
शाख पर ठहरी
मोहब्बत तुझे दिखाऊँ
हुस्न और इश्क की
बेपनाह मोहब्बत के
नगमे तुझे सुनाऊँ

हुस्न : इश्क , क्या तुमने कल चाँद देखा ?
मैंने उसमें तुम्हें देखा
इश्क : हाँ , कोशिश की
लेकिन मुझे सिर्फ तुम दिखीं
चाँद कहीं नही

हुस्न : आसमान पर लिखी तहरीर देखी
इश्क : नहीं , तेरी तस्वीर देखी

हुस्न : क्या मेरी आवाज़ तुम तक पहुँचती है ?
इश्क : मैं तो सिर्फ तुम्हें ही सुनता हूँ
क्या कोई और भी आवाज़ होती है ?

हुस्न : मिलन संभव नही
इश्क : जुदा कब थे

हुस्न : मैं अमानत किसी और की
तू ख्याल किसी और का
इश्क : या खुदा
तू मोहब्बत कराता क्यूँ है ?
मोहब्बत करा कर
हुस्न-ओ-इश्क को फिर
मिलवाता क्यूँ नही है ?

इश्क के बोलों ने
हुस्न को सिसका दिया
हिमाच्छादित दिल की
बर्फ को भी पिघला दिया
इश्क के बोलो के
दहकते अंगारों पर
तड़पते हुस्न का
जवाब आया
तेरी मेरी मोहब्बत का अंजाम
खुदा भी लिखना भूल गया
वक़्त की दीवार पर
तुझे इश्क और
मुझे हुस्न का
लबादा ओढा गया
हमें वक़्त की
जलती सलीब पर
लटका गया
और शायद इसीलिए
तुझे भी वक़्त की
सलाखों से बाँध दिया
मुझे भी किसी के
शीशमहल का
बुत बना दिया
तेरी मोहब्बत की तपिश
नैनो से मेरे बरसती है
तेरे करुण क्रंदन के
झंझावात में
मर्यादा मेरी तड़पती है
प्रेमसिन्धु की अलंकृत तरंगें
बिछोह की लहर में कसकती हैं
हिमशिखरों से टकराती
अंतर्मन की पीड़ा
प्रतिध्वनित हो जाती है
जब जब तेरे छालों से
लहू रिसता है
देह की खोल में लिपटी
रूहों के यज्ञ की पूर्णाहूति
कब खुदा ने की है ?
हुस्न की समिधा पर
इश्क के घृत की आहुति
कब पूर्णाहूति बन पाई है
फिर कहो, कब और कैसे
मिलन को परिणति
मिल पायेगी
हुस्न - ओ - इश्क
खुदाई फरमान
और बेबसी के
मकडजाल में जकड़े
रूह के फंद से
आज़ाद होने को
तड़फते हैं
इस जनम की
उधार को
अगले जनम में
चुकायेंगे
ऐसा वादा करते हैं
प्रेम के सोमरस को
अगले जनम की
थाती बना
हुस्न और इश्क ने
विदा ले ली
रूह के बंधनों से
आज़ाद हो
अगले जनम की प्रतीक्षा में
मिलन को आतुर पंछी
अनंत में विलीन हो गए
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( वंदना गुप्ता जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

यौवन

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटता कवि कुलवंत सिंह का गीत. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

सोने की थाली में यदि
मैं चांदनी भर पाऊँ,
प्रेम रूप पर गोरी तेरे
भर भर हाथ लुटाऊँ।

हवा में घुल पाऊँ यदि
तेरी सांसो मे बस जाऊँ,
धड़कन हृदय की
वक्ष के स्पंदन मैं बन जाऊँ।

अलसाया सा यौवन तेरा
अंग अंग में तरुणाई,
भर लूँ मैं बांहे फ़ैला
बन कर तेरी ही अंगड़ाई।

चंदन बन यदि तन से लिपटूं
महकूँ कुंआरे बदन सा,
मदिरा बन मैं छलकूँ
अलसाये नयनों से प्रीत सा।

स्वछंद-सुवासित-अलकों में
वेणी बन गुंध जाऊँ,
बन नागिन सी लहराती चोटी
कटि स्पर्श सुख पाऊँ।

अरुण अधर कोमल कपोल
बन चंद्र किरन चूम पाऊँ,
सेज मखमली बन
तेरे तन से लिपट जाऊँ।
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( सप्तरंगी प्रेम पर कुलवंत सिंह की अन्य रचनाओं के लिए क्लिक करें)

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

कहना चाहती हूं ...

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती किरण राजपुरोहित नितिला जी की कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

बहुत कुछ कहना चाहती हूं
जताना चाहती हूं
हवाओं से
गुलाबों से
खुश्बुओं से
जो मन में है
कि तुम क्या हो !!!
मेरे जीवन में ,
पर
कुछ कहना चाहूं
तो
होंठ संकोच से
सिमट कर रह जाते है
चुप सी छा जाती है
अर्थों पर
और वह चुप्पी
बयां कर देती है
जो लफ़जों के बंधे किनारे
से बहुत अधिक
नीले आसमां तक
शून्य के चहुं ओर
फैल कर
पत्तों की
सर सर
भोर की खन खन
से भी अधिक
होती है !
तब सोचूं
तुम स्वर हो मेरे
और
मैं
तुम्हारा
मौन वर्णन !

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किरण राजपुरोहित नितिला / जोधपुर/ रूचि-साहित्य पढना,कविता कहानी लिखना, फोटोग्राफी , स्कैच बनाना, तैल चित्रकारी करना ,ऐतिहासिक जगह देखना/ मेरे बारे में : छोटी छोटी खुशियां जो अनमोल है ,बस वही तो सही जिंदगी है उन में से एक यह ब्ब्ब्लॉग. ब्ब्लॉग की दुनिया में मैं एक बूंद हूं । पूरे वजूद के साथ् खनकती हूं। कभी आर्टिस्ट कभी लिखना और घर की रानी हूं तो राज तो करती ही हूं. अंतर्जाल पर भोर की पहली किरण के माध्यम से सक्रियता.

शनिवार, 11 सितंबर 2010

कहां थमता है प्यार

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती अरुणा राय की कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

प्रेमी
गौरैये का वो जोड़ा है
जो समाज के रौशनदान में
उस समय घोसला बनाना चाहते हैं
जब हवा सबसे तेज बहती हो
और समाज को प्रेम पर
उतना एतराज नहीं होता
जितना कि घर में ही
एक और घर तलाशने की उनकी जिद पर
शुरू में
खिड़की और दरवाजों से उनका आना-जाना
उन्हें भी भाता है
भला लगता है चांय-चू करते
घर भर में घमाचौकड़ी करना
पर जब उनके पत्थर हो चुके फर्श पर
पुआल की नर्म सूखी डांट और पत्तियां गिरती हैं
एतराज
उनके कानों में फुसफुसाता है
फिर वे इंतजार करते हैं
तेज हवा
बारिश
और लू का
और देखते हैं
कि कब तक ये चूजे
लड़ते हैं मौसम से
बावजूद इसके
जब बन ही जाता है घोंसला
तब वे जुटाते हैं
सारा साजो-सामान
चौंकी लगाते हैं पहले
फिर उस पर स्टूल
पहुंचने को रोशनदान तक
और साफ करते हैं
कचरा प्रेम का
और फैसला लेते हैं
कि घरों में रौशनदान
नहीं होने चाहिए
नहीं दिखने चाहिए
ताखे
छज्जे
खिड़कियां में जाली होनी चाहिए

पर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
कहां थमता है प्यार

जब वे सबसे ज्यादा
निश्चिंत
और बेपरवाह होते हैं
उसी समय
जाने कहां से
आ टपकता है एक चूजा

भविष्यपात की सारी तरकीबें
रखी रह जाती हैं
और चूजा
बाहर आ जाता है..!!
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नाम - अरूणा राय

उपनाम - रोज

जन्म : १८ नवंबर १९८४ को इलाहाबाद में।

शिक्षा : बी.एससी. इलाहाबाद से

कार्यक्षेत्र : पुलिस सेवा में सब इंस्पेक्टर।

रुचियाँ : लेखन, चित्रकला व नृत्य

ई मेल- arunarai2010@gmail.com

सोमवार, 6 सितंबर 2010

तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती अनामिका (सुनीता) जी की ग़ज़ल। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

तेरे प्यार की चाहत में ये दिये जलाया करती हूँ.
खामोश सितारों में ये तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.

आकाश में ज्यूँ बदली लुका-छिपी सी करती हो
नर्म बाहों के ख़यालों में यूँ ही सिमटा करती हूँ.

तमन्नाओ के पंख लगा हवा से बातें करती हूँ.
हिज्र की रातो में बस तुझको ही ढूंढा करती हूँ.

लब चूम तब मेरी आँखों में तुम भी झाँका करते हो ..
सवालिया नज़रों से मैं भी ये चाहत जाना करती हूँ.

बिखर जाती हूँ मैं तब बेताब हो तेरी बाहों में..
ये शब् न ढले, रब से यूँ दुआएं माँगा करती हूँ.

उदास हो यूँ तेरी यादों के दिये जलाया करती हूँ.
खामोश सितारों में ये तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.
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नाम : अनामिका (सुनीता)
जन्म : 5 जनवरी, 1969
निवास : फरीदाबाद (हरियाणा)
शिक्षा : बी.ए , बी.एड.
व्यवसाय : नौकरी
शौक : कुछः टूटा-फूटा लिख लेना, पुराने गाने सुनना।
मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है मन में उठी सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएं चाहे वो दुःख की हों या सुख की....मेरे भीतर चलती हैं.. ...... महसूस होती हैं ...और मेरी कलम में उतर आती हैं.
ब्लोग्स : अनामिका की सदायें और अभिव्यक्तियाँ