'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का एक प्रेम-गीत. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कँह? पुकारूँ...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
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(आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग एक ऐसा मंच है, जहाँ हम प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं. रचनाएँ किसी भी विधा और शैली में हो सकती हैं. आप भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 2 मौलिक रचनाएँ, जीवन वृत्त, फोटोग्राफ kk_akanksha@yahoo.com पर भेज सकते हैं. रचनाएँ व जीवन वृत्त यूनिकोड फॉण्ट में ही हों.
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सोमवार, 30 अगस्त 2010
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
हसरत-ए-मंजिल
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सुमन 'मीत' जी की एक कविता 'हसरत-ए-मंजिल'. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
न मैं बदला
न तुम बदली
न ही बदली
हसरत-ए-मंजिल
फिर क्यूं कहते हैं सभी
कि बदला सा सब नज़र आता है
शमा छुपा देती है
शब-ए-गम के
अंधियारे को
वो समझते हैं
कि हम चिरागों के नशेमन में जिया करते हैं !
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(सुमन 'मीत' जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
न मैं बदला
न तुम बदली
न ही बदली
हसरत-ए-मंजिल
फिर क्यूं कहते हैं सभी
कि बदला सा सब नज़र आता है
शमा छुपा देती है
शब-ए-गम के
अंधियारे को
वो समझते हैं
कि हम चिरागों के नशेमन में जिया करते हैं !
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(सुमन 'मीत' जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
बुधवार, 18 अगस्त 2010
सपना सपना ही रहने दो
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती नीलम पुरी जी की एक ग़ज़ल. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो,
तुम्हें मुबारक हो घर अपना
दीवारों से मुझको लिपटा रहने दो,
महफ़िल में गाना तुम गीत अपने ,
ग़ज़ल मेरी है मुझे ग़ज़ल कहने दो,
लहरों ने छुआ साहिल को कई बार,
मुझे तुम्हारा अहसास ही रहने दो,
खामोश हैं लब मेरे तो कोई बात नहीं ,
कहते है कहानी आँखों के अश्क उन्हें कहने दो,
मील के पत्थर बताते हैं मंजिल का पता.
पत्थर ही सही उसे मेरा हम सफ़र रहने दो,
सब कह लेते है जज़्बात अपनी जुबान से,
कलम मेरी भी कुछ कहती है उसे कहने दो.
इंतज़ार की हद्द बाकी है अभी,
आँखों को मरने के बाद भी खुला रहने दो,
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो.
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(नीलम पुरी जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो,
तुम्हें मुबारक हो घर अपना
दीवारों से मुझको लिपटा रहने दो,
महफ़िल में गाना तुम गीत अपने ,
ग़ज़ल मेरी है मुझे ग़ज़ल कहने दो,
लहरों ने छुआ साहिल को कई बार,
मुझे तुम्हारा अहसास ही रहने दो,
खामोश हैं लब मेरे तो कोई बात नहीं ,
कहते है कहानी आँखों के अश्क उन्हें कहने दो,
मील के पत्थर बताते हैं मंजिल का पता.
पत्थर ही सही उसे मेरा हम सफ़र रहने दो,
सब कह लेते है जज़्बात अपनी जुबान से,
कलम मेरी भी कुछ कहती है उसे कहने दो.
इंतज़ार की हद्द बाकी है अभी,
आँखों को मरने के बाद भी खुला रहने दो,
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो.
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(नीलम पुरी जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
"क्या फिर ऋतुराज का आगमन हुआ है ?"
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती वन्दना गुप्ता जी की कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
सोमरस -सा
प्राणों को
सिंचित करता
तुम्हारा ये नेह
ज्यों प्रोढ़ता की
दहलीज पर
वसंत का आगमन
नव कोंपल सी
खिलखिलाती
स्निग्ध मुस्कान
ज्यों वीणा के तार
झनझना गए हो
स्नेहसिक्त नयनो से
बहता प्रेम का सागर
ज्यों तूफ़ान कोई
दरिया में
सिमट आया हो
सांसों के तटबंधों
को तोड़ते ज्वार
ज्यों सैलाब किसी
आगोश में
बंध गया हो
प्रेमारस में
भीगे अधर
ज्यों मदिरा कोई
बिखर गयी हो
धडकनों की
ताल पर
थिरकता मन
ज्यों देवालय में
घंटियाँ बज रही हों
आह ! ये कैसा
अनुबंध है प्रेम का
क्या फिर
ऋतुराज का
आगमन हुआ है ?
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(वंदना गुप्ता जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
सोमरस -सा
प्राणों को
सिंचित करता
तुम्हारा ये नेह
ज्यों प्रोढ़ता की
दहलीज पर
वसंत का आगमन
नव कोंपल सी
खिलखिलाती
स्निग्ध मुस्कान
ज्यों वीणा के तार
झनझना गए हो
स्नेहसिक्त नयनो से
बहता प्रेम का सागर
ज्यों तूफ़ान कोई
दरिया में
सिमट आया हो
सांसों के तटबंधों
को तोड़ते ज्वार
ज्यों सैलाब किसी
आगोश में
बंध गया हो
प्रेमारस में
भीगे अधर
ज्यों मदिरा कोई
बिखर गयी हो
धडकनों की
ताल पर
थिरकता मन
ज्यों देवालय में
घंटियाँ बज रही हों
आह ! ये कैसा
अनुबंध है प्रेम का
क्या फिर
ऋतुराज का
आगमन हुआ है ?
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(वंदना गुप्ता जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
शनिवार, 7 अगस्त 2010
रुकते थमते से ये कदम
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती शिखा वार्ष्णेय जी की कविता 'रुकते थमते से ये कदम'. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
रुकते थमते से ये कदम
अनकही कहानी कहते हैं
यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं
ख्यालों की रवानी कहते हैं
रुकते थमते.....
सीने में थी जो चाह दबी
होटों पे थी जो प्यास छुपी
स्नेह तरसती पलकों की
दिलकश कहानी कहते हैं
रुकते थमते....
धड़कन स्वतः जो तेज हुई
अधखिले लव जो मुस्काये
माथे पर इठलाती लट की
नटखट नादानी कहते हैं।
रुकते थमते....
सघन अंधेरी रातों में
ज्यों हाथ लिए हो हाथों में
दो जुगनू सी जो चमक
रही आँखों की सलामी कहते हैं
रुकते थमते...
लावण्या अपार ललाटो पर
सिंदूरी रंग यूँ गालों
पर मद्धम -मद्धम सी साँसों की
मदमस्त खुमारी कहते हैं
रुकते थमते....!!
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(शिखा वार्ष्णेय जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
रुकते थमते से ये कदम
अनकही कहानी कहते हैं
यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं
ख्यालों की रवानी कहते हैं
रुकते थमते.....
सीने में थी जो चाह दबी
होटों पे थी जो प्यास छुपी
स्नेह तरसती पलकों की
दिलकश कहानी कहते हैं
रुकते थमते....
धड़कन स्वतः जो तेज हुई
अधखिले लव जो मुस्काये
माथे पर इठलाती लट की
नटखट नादानी कहते हैं।
रुकते थमते....
सघन अंधेरी रातों में
ज्यों हाथ लिए हो हाथों में
दो जुगनू सी जो चमक
रही आँखों की सलामी कहते हैं
रुकते थमते...
लावण्या अपार ललाटो पर
सिंदूरी रंग यूँ गालों
पर मद्धम -मद्धम सी साँसों की
मदमस्त खुमारी कहते हैं
रुकते थमते....!!
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(शिखा वार्ष्णेय जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
सोमवार, 2 अगस्त 2010
प्यार, प्यार और प्यार !!
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती मुकेश कुमार सिन्हा जी की कविता 'प्यार, प्यार और प्यार'. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
न आसमान को मुट्ठी में,
कैद करने की थी ख्वाइश,
और न, चाँद-तारे तोड़ने की चाहत!
कोशिश थी तो बस,
इतना तो पता चले की,
क्या है?
अपने अहसास की ताकत!!
इतना था अरमान!
की गुमनामी की अँधेरे मैं,
प्यार के सागर मैं,
धुधु अपनी पहचान!!
इसी सोच के साथ,
मैंने निहारा आसमान!!!
और खोला मन को द्वार!
ताकि कुछ लिख पाऊं,
आखिर क्या है?
ढाई आखर प्यार!!
पर बिखर जाते हैं,
कभी शब्द तो कभी,
मन को पतवार!!!
रह जाती है,
कलम की मुट्ठी खाली हरबार!!!!
फिर आया याद,
खुला मन को द्वार!
कि किया नहीं जाता प्यार!!
सिर्फ जिया जाता है प्यार!!!
किसी के नाम के साथ,
किसी कि नाम के खातिर!
प्यार, प्यार और प्यार !!
*************************************************************************
मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथधाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा,पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है,तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है..काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता. पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ.क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ, खुश हूँ.अंतर्जाल पर जिंदगी की राहें के माध्यम से सक्रियता.
न आसमान को मुट्ठी में,
कैद करने की थी ख्वाइश,
और न, चाँद-तारे तोड़ने की चाहत!
कोशिश थी तो बस,
इतना तो पता चले की,
क्या है?
अपने अहसास की ताकत!!
इतना था अरमान!
की गुमनामी की अँधेरे मैं,
प्यार के सागर मैं,
धुधु अपनी पहचान!!
इसी सोच के साथ,
मैंने निहारा आसमान!!!
और खोला मन को द्वार!
ताकि कुछ लिख पाऊं,
आखिर क्या है?
ढाई आखर प्यार!!
पर बिखर जाते हैं,
कभी शब्द तो कभी,
मन को पतवार!!!
रह जाती है,
कलम की मुट्ठी खाली हरबार!!!!
फिर आया याद,
खुला मन को द्वार!
कि किया नहीं जाता प्यार!!
सिर्फ जिया जाता है प्यार!!!
किसी के नाम के साथ,
किसी कि नाम के खातिर!
प्यार, प्यार और प्यार !!
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मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथधाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा,पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है,तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है..काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता. पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ.क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ, खुश हूँ.अंतर्जाल पर जिंदगी की राहें के माध्यम से सक्रियता.
लेबल:
कवितायेँ,
जीवन-वृत्त,
मुकेश कुमार सिन्हा
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