'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती उदयभानु ‘हंस’ जी की एक कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया,
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।
यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची,
तेरी तस्वीर बना बैठा।
मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा,
मैं तेरा नाम बता बैठा।
सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले,
मैं तेरी अलख जगा बैठा।
मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया,
मैं तेरा गीत बना बैठा।
मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला,
तेरे ही दर पर जा बैठा।
मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते,
अपना भी होश भुला बैठा।
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शिक्षा: प्रभाकर, शास्त्री एवं एम.ए. (हिन्दी)
कार्यक्षेत्र: अध्यापन एवं लेखन। सनातन धर्म संस्कृत कॉलेज, मुलतान (१९४५-४७), रामजस कॉलेज, दिल्ली (१९५२-५३), गवर्नमेंट कॉलेज, हिसार (१९५४) - प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त (१९८८)।
प्रकाशित कृतियाँ: 'उदयभानु हंस रचनावली' दो खंड (कविता) दो खंड (गद्य)।
सम्मान एवं पुरस्कार: अनेक सम्मानों व पुरस्कारों से अलंकृत। देश विदेश में कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कवि, 'दूरदर्शन' के दिल्ली एवं जालन्धर केन्द्रों द्वारा तीस-तीस मिनट के दो 'वृत्तचित्रों' का निर्माण एवं प्रसारण, हिन्दी में 'रूबाई' के प्रवर्तक कवि १९४८ 'रूबाई सम्राट' नाम से लोकप्रिय।
तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया,
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।
यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची,
तेरी तस्वीर बना बैठा।
मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा,
मैं तेरा नाम बता बैठा।
सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले,
मैं तेरी अलख जगा बैठा।
मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया,
मैं तेरा गीत बना बैठा।
मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला,
तेरे ही दर पर जा बैठा।
मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते,
अपना भी होश भुला बैठा।
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उदयभानु ‘हंस’
जन्म: २ अगस्त १९२६
शिक्षा: प्रभाकर, शास्त्री एवं एम.ए. (हिन्दी)
कार्यक्षेत्र: अध्यापन एवं लेखन। सनातन धर्म संस्कृत कॉलेज, मुलतान (१९४५-४७), रामजस कॉलेज, दिल्ली (१९५२-५३), गवर्नमेंट कॉलेज, हिसार (१९५४) - प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त (१९८८)।
प्रकाशित कृतियाँ: 'उदयभानु हंस रचनावली' दो खंड (कविता) दो खंड (गद्य)।
सम्मान एवं पुरस्कार: अनेक सम्मानों व पुरस्कारों से अलंकृत। देश विदेश में कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कवि, 'दूरदर्शन' के दिल्ली एवं जालन्धर केन्द्रों द्वारा तीस-तीस मिनट के दो 'वृत्तचित्रों' का निर्माण एवं प्रसारण, हिन्दी में 'रूबाई' के प्रवर्तक कवि १९४८ 'रूबाई सम्राट' नाम से लोकप्रिय।
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