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सोमवार, 31 जनवरी 2011

कमनीय स्वप्न : आशीष

कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई

खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध

कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर दृग कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज

नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .
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आशीष / अभियांत्रिकी का स्नातक, भरण के लिए सम्प्रति कानपुर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में चाकरी ,साहित्य पढने की रूचि है तो कभी-कभी भावनाये उबाल मारती हैं तो साहित्य सृजन भी हो जाता है /अंतर्जाल पर युग दृष्टि के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 24 जनवरी 2011

जज्बातों का एहसास : मानव मेहता

और कुछ देर में चाँद, बादलों से घिर जायेगा..

बुझ जायेगी शमां अँधेरा रोशन हो जायेगा...

तन्हाई के इस सीले से मौसम में,

फिर कोई दर्द के अलाव जलाएगा...


थक-हार कर बैठ के शबिस्तानों में अपने, वह

तन्हाई समेटेगा और गम की चादर बिछायेगा....

है जिस की खवाहिश उसको रात की इस घडी में,

वो शख्स उससे मिलने आखिरी-ए-शब् तक न आ पायेगा...


इस वक़्त वह अकेला है तो उसे अकेला रहने दो,

इस तन्हाई में ही वो खुद को हल्का कर पायेगा...

ये उदासी, ये आंसू ही उसको कुछ सहारा दे पायेंगे,

वरना वो अपने दिल पर इक बोझ ढोता जायेगा....


जब सूख जायेगा पानी उसकी आँखों का बह-बह कर,

वो खुद ही फिर यहाँ से चुप-चाप चला जायेगा....

शायद यही आंसू उसको कुछ होंसला दें पायें फिर से,

और तभी शायद वो अपने खोये लम्हे तलाश कर पायेगा....


सिर्फ ऐसी ही रातें तो अब उसकी ज़िन्दगी का सरमाया है,

यही कसक है जो उससे बादे-मौत भी जुदा न हो पायेगा...

इक आखिरी-पहर तो उसको उसको चैन से जी लेने दो दुनिया वालों,

कल तक तो वो तुम्हारे लिए अपना सब कुछ लुटा जाएगा...


तुम तंगदिल थे और हमेशा तंगदिल ही रहोगे,

जाने कब तुम्हें उसके जज्बातों का एहसास हो पायेगा...

तुम देते रहे हो और देते रहना आगे भी उसको बद्दुआएं,

फिर भी मरता हुआ, हंस कर वो तुम्हें दुआ दे जायेगा....
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मानव मेहता /स्थान -टोहाना/ शिक्षा -स्नातक (कला) स्नातकोतर (अंग्रेजी) बी.एड./ व्यवसाय -शिक्षक/अंतर्जाल पर सारांश -एक अंत.. के माध्यम से सक्रिय।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

सिलवटें : वन्दना गुप्ता

बिस्तर की सिलवटें तो मिट जाती हैं
कोई तो बताये
दिल पर पड़ी सिलवटों को
कोई कैसे मिटाए
उम्र बीत गई
रोज सिलवटें मिटाती हूँ
मगर हर रोज
फिर कोई न कोई
दर्द करवट लेता है
फिर कोई ज़ख्म
हरा हो जाता है
और फिर एक नई
सिलवट पड़ जाती है
हर सिलवट के साथ
यादें गहरा जाती हैं
और हर याद के साथ
एक सिलवट पड़ जाती है
फिर दिल पर पड़ी सिलवट
कोई कैसे मिटाए
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नाम : वंदना गुप्ता / व्यवसाय: गृहिणी / निवास : नई दिल्ली / मैं एक गृहणी हूँ। मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है तथा झूठ से मुझे सख्त नफरत है। मैं जो भी महसूस करती हूँ, निर्भयता से उसे लिखती हूँ। अपनी प्रशंसा करना मुझे आता नही इसलिए मुझे अपने बारे में सभी मित्रों की टिप्पणियों पर कोई एतराज भी नही होता है। मेरा ब्लॉग पढ़कर आप नि:संकोच मेरी त्रुटियों को अवश्य बताएँ। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि हरेक ब्लॉगर मित्र के अच्छे स्रजन की अवश्य सराहना करूँगी। ज़ाल-जगतरूपी महासागर की मैं तो मात्र एक अकिंचन बून्द हूँ। अंतर्जाल पर जिंदगी एक खामोश सफ़र के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 10 जनवरी 2011

सुनो सनम : अनामिका (सुनीता)

सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो
अपने आगोश में लेकर
इस तन को
सुशोभित कर दो...
सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो ...


अब तक सुनती आई हूँ..
नदी सागर में गिरती है
पर आज तुम सागर बन कर
मुझ नदी में समा जाओ
प्यार की बदली बन कर
मुझ पर बरस जाओ
सुनो सनम आज
अपने हाथों से
मुझे श्रृंगारित कर दो ...


मेरी मांग सिन्दूरी करो ..
मेरी जुल्फों की
चूडा-मणि खोल
मेरी जुल्फों की खुशबू में
अपनी साँसों को घोलो ..
आज मुझ में
खुद को डुबो लो...


मेरे माथे पर
अपने प्यासे लबों से
बिंदिया सजा दो ..
अपने कमल नयन से दर्पण में
मुझे मेरी सूरत दिखा दो ..


अपने प्यार की मुहर
मेरे रुखसारों पर दे दो
मेरे शुष्क होठों पर
अपने लरज़ते होठों की
लाली दे दो ..
सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो ...!!


अपनी बाहों का
हार पहना दो ..
अपने स्पर्श से
मेरे बदन की डाली को
खिला दो..
आज आसमान बन
इस धरती को ढक दो


हाँ, सनम
आज मैं कुछ ज्यादा ही
मांगती हूँ तुमसे..
कि मेरे दिल पर
अपना हाथ रखो
मेरी धडकनों को
अपनी धडकनें सुना दो ..


आज कुछ मनुहार करो
अपनी बाहों में समेटो
कंप-कंपाते अरमानों को
अपने प्यार की
तपिश दे दो.
आज मुझे अपने हाथों से
दुल्हन सा सजा दो...!!


अंदर जो सदियों की आग है
अपने प्यार की बरखा से
तन-मन की प्यास बुझा दो
इस प्यासी ज़मीं को
आज पुलकित कर दो
अपने प्यार के सैलाब से
इसे जल-जल कर दो


सुनो सनम
आज कुछ ज्यादा ही
मांगती हूँ तुमसे
कि आज मुझे
श्रृंगारित कर दो ..!!

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नाम : अनामिका (सुनीता)जन्म : 5 जनवरी, 1969निवास : फरीदाबाद (हरियाणा)शिक्षा : बी।ए , बी.एड.व्यवसाय : नौकरीशौक : कुछः टूटा-फूटा लिख लेना, पुराने गाने सुनना।मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है मन में उठी सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएं चाहे वो दुःख की हों या सुख की....मेरे भीतर चलती हैं॥ ...... महसूस होती हैं ...और मेरी कलम में उतर आती हैं.
ब्लोग्स : अनामिका की सदायें और अभिव्यक्तियाँ

सोमवार, 3 जनवरी 2011

जख्म को मत इतना कुरेदो कोई : प्रकाश यादव "निर्भीक"

जख्म को मत इतना कुरेदो कोई
कि फिर से यह हरा न हो जाए
वरना कांटो भरी राहों में चलना
फिर से हमारा मुश्किल हो जायेगा

एक ही तो गुलाब था जिन्दगी में
जिसे देख मुस्कुराते थे कभी हम
उसका न होने का अहसास न कराओ
वरना फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा

अधुरी ख्वाहिश रह गई तो क्या हुआ
पूरी होती ख्वाहिश कहां किसी की यहां
अधुरेपन में ही यहां जीने का मजा है
वरना सफर में हमसफर याद आती कहां

दूर होकर भी हरवक्त आसपास है वो
जीवन के हरपल में एक श्वांस है वो
तमन्ना पूरी हुई नहीं हमारी तो क्या हुआ
जिन्दगी का टुटा हुआ एक ख्वाब है वो

मजबुर थे हालात से हम दोनों इस कदर
चाहकर भी न बन सके हम हमसफर
दूर रहकर ही बांट लेगें सारे गम अपने
"निर्भीक" की तरह कट जायेगा जीवन सफर.

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प्रकाश यादव "निर्भीक"
अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in