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बुधवार, 16 अप्रैल 2014

हर जनम में साथ रहना, हर समय तुम मुस्कराना

तुम अकेले रह गए तो भोर का तारा बनूं मै।
मै अकेला रह गया तो रात बनकर पास आना।

तुम कलम की नोक से उतरे हो अक्षर की तरह।
मै समय के मोड़ पर बिखरा हूँ प्रस्तर की तरह।
तुम अकेले बैठकर बिखरी हुई प्रस्तर शिला पर,
सांध्य का संगीत कोई मौन स्वर में गुनगुनाना।

एक परिचय था पिघलकर घुल गया है सांस में।
रात भर जलता रहा दीपक सृजन की आस में।
दृश्य अंकित है तुम्हारा मिट न पाया आज तक
बिखरे हुए सपनों को चुनकर प्यार का एक घर बसाना।

बह रहा दरिया न रोको भंवर का परिहास देखो।
कह रहा उठ गिर कहानी लहर का अनुप्रास देखो।
एक कश्ती की तरह मै तुम किनारे के पथिक हो
शाम होते ही नदी से अपने घर को लौट जाना।

पर्वतों के पार जाकर मै तुम्हे आवाज दूंगा।
प्रीति के तारों से निर्मित मै तुम्हें एक साज दूंगा।
मेरी नज़रों में उतरकर आखिरी अनुबंध कर लो
हर जनम में साथ रहना हर समय तुम मुस्कराना।

-रविनंदन सिंह 
संपादक -'हिंदुस्तानी' शोध पत्रिका  

हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद 

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