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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बिखरे अस्तित्व : वंदना गुप्ता

इस मकान के
कमरों में
बिखरा अस्तित्व
घर नही कहूँगी
घर में कोई
अपना होता है
मगर मकान में
सिर्फ कमरे होते हैं
और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट-टूट कर
बिखरता वजूद
कभी किसी
कमरे की
शोभा बनती
दिखावटी मुस्कान
यूँ एक कमरा
जिंदा लाश का था
तो किसी कमरे में
बिस्तर बन जाती
और मन पर
पड़ी सिलवटें
गहरा जाती
यूँ एक कमरा
सिसकती सिलवटों का था
किसी कमरे में
ममता का
सागर लहराता
मगर दामन में
सिर्फ बिखराव आता
यूँ एक कमरा
आँचल में सिसकते
दूध का था
किसी कमरे में
आकांक्षाओं, उम्मीदों
आशाओं की
बलि चढ़ता वजूद
यूँ एक कमरा
फ़र्ज़ की कब्रगाह का था
कभी रोटियों में ढलता
कभी बर्तनों में मंजता
कभी कपड़ों में सिमटता
तो कभी झाड़ू में बिखरता
कभी नेह के दिखावटी
मेह में भीगता
कभी अपशब्दों की
मार सहता
हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं.

_______________________________________________________________________________
वंदना गुप्ता

18 टिप्‍पणियां:

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

vndnaa bhn aek ghr or aek mkaan kaa jo frq apne shbdon men btaaya he voh dil ki ghraaiyon se kdva sch he mubark ho bhut achchaa likha he . akhtar khan akela kota rajsthan

Alokita Gupta ने कहा…

hriday sparshi rachna

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

स्वयं के आस्तित्व की खोज में अच्छी रचना ..

vandana gupta ने कहा…

मेरी रचना को मंच पर जगह देने के लिये आपकी आभारी हूँ आकांक्षा जी।

Amit Kumar Yadav ने कहा…

खूबसूरत कविता..सुन्दर भाव...वंदना जी को बधाई.

KK Yadav ने कहा…

बेहतरीन...नारी के अस्तित्व को खंड-खंड में बाँट दिया गया है. काश हम उसी समग्रता को समझ पाते.

shikha varshney ने कहा…

Bahut sundar naree ahsason se lavrez kavita.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .

http://charchamanch.uchcharan.com/

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

vandana ji.........aapki ye rachna hriday ko chu gayi........bhut hi sundar likhti hai aap...dhanyawaad

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

अस्तित्व, घर, कमरे और नारी मन के कोमल एह्सासों से सजी आपकी इस कविता ने तब्बू वाली 'अस्तित्व' और शेखर सुमन वाली 'उत्सव' फिल्म की याद दिला दी| हालाँकि इन सब में कोई समानता तलाशना बचपना होगा, बस याद आ गयीं ये दो फिल्म| बधाई वंदना जी|

M VERMA ने कहा…

टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
यकीनन .. पर बिखरने से तो बचना ही होगा
एहसास की सुन्दर रचना

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत भावुक प्रस्तुति..लेकिन आज घर रहे कहाँ हैं केवल मकान बन कर रह गए हैं

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

vandna ji kavita hamesha hi bahut touching hoti hain......
bahut sundar...

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

टुकडों में बटीं नारी का बहुत छू लेने वाला चित्रण ,बधायी ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

खूबसूरत कविता..

raghav ने कहा…

रोचक कविता..बधाई.

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत भावुक प्रस्तुति|बधाई|

Minakshi Pant ने कहा…

हकीक़त बयां करती कविता जिसे समझता हर कोई है पर कहता कोई नहीं !
बहुत खुबसूरत शब्दों का ताना बाना !
बधाई दोस्त !