चित्र साभार : वेबदुनिया
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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
प्रेम एवं सौहार्द के नए रंगों के साथ नूतन वर्ष -2011 की मंगलकामनाएं
चित्र साभार : वेबदुनिया
सोमवार, 27 दिसंबर 2010
आभास : महेश चंद्र द्विवेदी
अवनि हो जाती है जब निद्रित
नील-नभ को घेर लेती कालिमा
और नक्षत्र भी सब होते हैं तंद्रित
ऐसे काले कुंतल केश वाली सुंदरि सुमुखि,
सघन तिमिर का रहस्यमय आकाश हो तुम।
ब्रह्मवेला में एक कोकिला बन
चहकती हो देकर चपल चितवन
छा जाती है तव व्रीड़ा पर लालिमा
सलज नयनों से जब देती निमंत्रण
मम हृदय में प्रीति के प्रस्फुटन का सन्देश लाती,
रक्तिम-रवि की प्रथम किरण का प्रकाश हो तुम।
अग्नि बरसाती धरा पर रविकिरन
वायु भी जब करती संतापित बदन
दग्ध धरती और दग्ध जड़-चेतन
पशु-पक्षी सब ढूंढते छाया सधन
मन के इक कोने में जगाकर स्वस्पर्श की कल्पना,
अग्नि-दग्ध इस हृदय की बुझाती प्यास हो तुम।
सूर्य जब जाने लगता है अस्तांचल
एकांत के संताप से मन होता विकल
दैदीप्यमान हो जाती स्मृति तुम्हारी
हृदय होता उतना ही अधिक विह्वल
तब शांति देती तुम्हारी आराधना की आरती ही,
गोधूलिवेला के पवन की मलयज सुवास हो तुम।
ग्रीवा में मयूर-सम मोहक चमक
तब बदन में गमके बेला की महक
तब अंगड़ाई उठाये हृत में कसक
तब दृष्टि में छिपी है गहन तड़ित
तू ही ग्रीष्म, तू ही पावस, और तू ही है शरत,
मधुर मधुमास के आगमन का आभास हो तुम।
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महेश चंद्र द्विवेदी
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
तेरे बगैर : सुमन 'मीत'
मुड़ के देख ज़रा
कैसी बेज़ारी से गुजरता है
मेरा हर लम्हा
तेरे बगैर.....
तुम थे – 2
तो रोशन था
मेरे ज़र्रे-ज़र्रे में
सकूं का दिया
अब तू नहीं तो – 2
जलता है मेरा
हर कतरा
गम के दिये में
तेरे बगैर......
तुम थे – 2
तो महकती थी
तेरी खुशबू से
मेरी फुलवारी
अब तू नहीं तो – 2
सिमट गई है मेरी
हर डाली
यादों की परछाई में
तेरे बगैर.......
तुम थे तो मैं था – 2
मेरे होने का था
कुछ सबब
सींच कर अपने प्यार से
बनाया था ये महल
अब तू नहीं तो – 2
टूट कर बिखर गया हूँ
इक मकां सा बन गया हूँ
तेरे बगैर
तेरे बगैर.....
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सुमन 'मीत'
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
बिखरे अस्तित्व : वंदना गुप्ता
कमरों में
बिखरा अस्तित्व
घर नही कहूँगी
घर में कोई
अपना होता है
मगर मकान में
सिर्फ कमरे होते हैं
और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट-टूट कर
बिखरता वजूद
कभी किसी
कमरे की
शोभा बनती
दिखावटी मुस्कान
यूँ एक कमरा
जिंदा लाश का था
तो किसी कमरे में
बिस्तर बन जाती
और मन पर
पड़ी सिलवटें
गहरा जाती
यूँ एक कमरा
सिसकती सिलवटों का था
किसी कमरे में
ममता का
सागर लहराता
मगर दामन में
सिर्फ बिखराव आता
यूँ एक कमरा
आँचल में सिसकते
दूध का था
किसी कमरे में
आकांक्षाओं, उम्मीदों
आशाओं की
बलि चढ़ता वजूद
यूँ एक कमरा
फ़र्ज़ की कब्रगाह का था
कभी रोटियों में ढलता
कभी बर्तनों में मंजता
कभी कपड़ों में सिमटता
तो कभी झाड़ू में बिखरता
कभी नेह के दिखावटी
मेह में भीगता
कभी अपशब्दों की
मार सहता
हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं.
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वंदना गुप्ता
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
तुमसे जो नहीं कहा
'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सूरज पी.सिंह की इक छोटी सी कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...
और जो मैं कहीं
माटी की ऊर्वरा बन
तुम्हारी जड़ों में पड़ा होता,
तब भी क्या तुम मुझे
अपने भीतर आने से रोक देते?
..और, जो मैं फूल बनकर
तुम्हारे वृंत पर खिल जाता,
बताओ,
फिर तुम क्या करते?
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सूरज पी. सिंह/ शिक्षा : एम. ए. ‘प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व’। ‘भारतीय संस्कृति’ में यूजीसी नेट उत्तीर्ण।
अभिरुचियाँ :कविता, फोटोग्राफी,जंगल-हरियाली,प्रकृति और मानव-संस्कृति से लगाव।
संप्रति: स्वतंत्र अनुवाद कार्य।
पता:सूरज पी. सिंह, A/301, हंसा अपार्टमेंट, साबेगांव रोड दिवा (पूर्व), थाणे, मुम्बई
ई-मेल : surajprakash.prakash@gmail.com
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
मैं और मेरी तन्हाई
इस सूने कमरे में है बस
मैं और मेरी तन्हाई
दीवारों का रंग पड गया फीका
थक गयी ऑंखें पर वो न आयी
छवि जो उसकी दिल में समाया
दीवारों पर टांग दिया
तू नहीं पर तेरी छवि से ही
टूटे मन को बहला लिया
पर क्या करूँ इस अकेलेपन का
बूँद-बूँद मन को रिसता है
उस मन को भी न तज पाऊँ मैं
जिस मन में वो छब बसता है
शायद वो आ जाए एक दिन
एकाकी घर संवर जाए
इस निस्संग एकाकीपन को
साथ कभी तेरा मिल जाए
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नाम:अनामिका घटक
जन्मतिथि : २७-१२-१९७०
जन्मस्थान :वाराणसी
कर्मस्थान: नॉएडा
व्यवसाय : अर्द्धसरकारी संस्थान में कार्यरत
शौक: साहित्य चर्चा , लेखन और शास्त्रीय संगीत में गहन रूचि.
सोमवार, 29 नवंबर 2010
ऐ मेरे प्राण बता...
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
वो झरोखे में छुपी
तेरे नयनों की चुभन,
गोरे रंग में जो घुली-
वो गुलाबों की घुलन,
तेरा तन छूकर आती
संदली मलय पवन.
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
तेरी चूडी में बसी
मेरे दिल की धडकन.
मेरे आंगन में बजी
वो पायल की रुनझुन.
मेरी नींदें थपकाती
तेरे अधरों की धुन.
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
तेरे घूंघट में छिपी
जो रतनारी चितवन,
वो कपोलों पे बसी
मृदु स्मिति की थिरकन,
मेरा अन्तर अकुलाती-
वो प्रिया-प्रिया की रटन.
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
मेरे मन में जो लगी,
इक अनोखी सी अगन.
मेरे मानस में बसी,
तेरे अधरों की छुअन.
मेरा तन सिहराती
तेरे श्वासों की तपन.
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
मेरे स्वप्नों में बसा
तेरा मरमरी सा बदन.
स्याह अलकें छितराती
छेडती मदमस्त पवन.
मेरा अन्तर तडपाती
तुझे पाने की लगन.
ऐ मेरे प्राण बता
क्या भुला पाओगे?
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नामः नीरजा द्विवेदी/ शिक्षाः एम.ए.(इतिहास).वृत्तिः साहित्यकार एवं गीतकार. समाजोत्थान हेतु चिंतन एवं पारिवारिक समस्याओं के निवारण हेतु सक्रिय पहल कर अनेक परिवारों की समस्याओं का सफल निदान. सामाजिक एवं मानवीय सम्बंधों पर लेखन. ‘ज्ञान प्रसार संस्थान’ की अध्यक्ष एवं उसके तत्वावधान में निर्बल वर्ग के बच्चों हेतु निःशुल्क विद्यालय एवं पुस्तकालय का संचालन एवं शिक्षण कार्य.प्रकाशन/ प्रसारण - कादम्बिनी, सरिता, मनोरमा, गृहशोभा, पुलिस पत्रिका, सुरभि समग्र आदि अनेकों पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित. भारत, ब्रिटेन एवं अमेरिका में कवि गोष्ठियों में काव्य पाठ, बी. बी. सी. एवं आकाशवाणी पर कविता/कहानी का पाठ। ‘कैसेट जारी- गुनगुना उठे अधर’ नाम से गीतों का टी. सीरीज़ का कैसेट.कृतियाँ- उपन्यास, कहानी, कविता, संस्मरण एवं शोध विधाओं पर आठ पुस्तकें प्रकाशित- दादी माँ का चेहरा, पटाक्षेप, मानस की धुंध(कहानी संग्रह,कालचक्र से परे (उपन्यास, गाती जीवन वीणा, गुनगुना उठे अधर (कविता संग्रह), निष्ठा के शिखर बिंदु (संस्मरण), अशरीरी संसार (साक्षात्कार आधारित शोध पुस्तक). प्रकाश्य पुस्तकः अमेरिका प्रवास के संस्मरण.सम्मानः विदुषी रत्न-अखिल भारतीय ब्रज साहित्य संगम, मथुरा, गीत विभा- साहित्यानंद परिषद, खीरी, आथर्स गिल्ड आफ़ इंडिया- 2001, गढ़-गंगा शिखर सम्मान- अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन, भारत भारती- महाकोशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद, जबलपुर, कलाश्री सम्मान, लखनऊ, महीयसी महादेवी वर्मा सम्मान- साहित्य प्रोत्साहन संस्थान लखनऊ, यू. पी. रत्न- आल इंडिया कान्फ़रेंस आफ़ इंटेलेक्चुअल्स, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान- सर्जना पुरस्कार.अन्य- अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश पुलिस परिवार कल्याण समिति के रूप में उत्तर प्रदेश के पुलिसजन के कल्याणार्थ अतिश्लाघनीय कार्य. भारतीय लेखिका परिषद, लखनऊ एवं लेखिका संघ, दिल्ली की सक्रिय सदस्य.संपर्क- 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनऊ. दूरभाषः 2304276 , neerjadewedy@yahoo.com
सोमवार, 22 नवंबर 2010
सिकता के कणों पर
सिकता के कणों पर खींचती हूं चित्र मैं
स्वयं ही, फिर स्वयं ही उन्हें मिटाती हूं;
रात्रि भर जागकर देखती हूं दिवास्वप्न,
उजास में स्वयं सयत्न सब भूल जाती हूं.
दस कदम चलती हूं उनके साथ साथ,
फिर अजनबी बनकर आगे बढ़ जाती हूं;
अनजाने आकाश में स्वयं बढ़ाती पेंग,
ऊंचाई पर पहुंचकर भयभीत हो जाती हूं.
परागरस से भरी हुई हूं अन्तस्तल तक,
भ्रमर की मांग को फिर भी ठुकराती हूं;
कुमुदिनी सी मूंदना चाहती हूं स्वयं में
उसे, भौंरे के निकट आने पर घबराती हूं.
अनवरत द्वन्द्व ही है इस जीवन का सच,
पर स्वयं को निर्द्वन्द्वता का पाठ पढ़ाती हूं,
ह्रदय जब भर रहा होता है लम्बी कुलांचें,
मैं सौम्यता की जीवन्त मूर्ति बन जाती हूं.
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नाम: महेश चंद्र द्विवेदी/जन्म-स्थान एवं जन्मतिथिः मानीकोठी, इटावा / 7 जुलाई, 1941/ शिक्षाः एम. एस. सी./भैतिकी/-लखनऊ विश्वविद्यालय /गोल्ड मेडलिस्ट/-एम. एस. सी./सोशल प्लानिंग/-लंदन स्कूल आफ़ इकोनोमिक्स- डिप्लोमा इन पब्लिक एडमिनिसट्रेशन- विशारद/. देश-विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन और आकाशवाणी-दूरदर्शन इत्यादि पर प्रसारण. भारत सहित विदेशों में भी मंचों पर पाठ. रामायण ज्ञान केन्द्र, यू. के. /बर्मिंघम-2007 और विश्व हिंदी सम्मेलन, /न्यूयार्क-२००७ में भागीदारी. विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित- अलंकृत.कुल 7 पुस्तकें प्रकाशित और तीन प्रकाशनाधीन . प्रकाशित पुस्तकें- 1.उर्मि- उपन्यास 2.सर्जना के स्वर- कविता संग्रह 3.एक बौना मानव- कहानी संग्रह 4. सत्यबोध- कहानी संग्रह 5.क्लियर फ़ंडा- व्यंग्य संग्रह 6.भज्जी का जूता- व्यंग्य संग्रह 7. प्रिय अप्रिय प्रशासकीय प्रसंग- संस्मरण 8. अनजाने आकाश में- कविता संग्रह . प्रकाशनाधीन- 1.भीगे पंख- उपन्यास २. मानिला की योगिनी- उपन्यास 3.कहानी संग्रह. आई. पी. एस.- पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत. सम्प्रति साहित्य और समाज सेवा में रत. डा. जितेंन्द्र कुमार सिंह ‘संजय’ द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी एवं उनकी पत्नी के साहित्य पर ‘साहित्यकार द्विवेदी दम्पति’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित, एम. फ़िल, लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्रा कु.श्रुति शुक्ल द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी के साहित्य पर शोध. संपर्क :‘ज्ञान प्रसार संस्थान’, 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनऊ -226010 / फोनः 2304276 / 9415063030ई मेलः maheshdewedy@yahoo.com
सोमवार, 15 नवंबर 2010
प्रेयसी
छोड़ देता हूँ निढाल
अपने को उसकी बाँहों में
बालों में अंगुलियाँ फिराते-फिराते
हर लिया है हर कष्ट को उसने।
एक शिशु की तरह
सिमटा जा रहा हूँ
उसकी जकड़न में
कुछ देर बाद
खत्म हो जाता है
द्वैत का भाव।
गहरी साँसों के बीच
उठती-गिरती धड़कनें
खामोश हो जाती हैं
और मिलने लगती हैं आत्मायें
मानो जन्म-जन्म की प्यासी हों।
ऐसे ही किसी पल में
साकार होता है
एक नव जीवन का स्वप्न।
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बुधवार, 10 नवंबर 2010
किसी ने कभी लिखा ही नहीं...
मुझे इंतज़ार है
उस एक ख़त का
जिसमें मजमून हो
उन महकते हुए
जज्बातों का
उन सिमटे हुए
अल्फाजों का
उन बिखरे हुए
अहसासों का
जो किसी ने
याद में मेरी
संजोये हों
कुछ न कहना
चाहा हो कभी
मगर फिर भी
हर लफ्ज़ जैसे
दिल के राज़
खोल रहा हो
धडकनों की भी
एक -एक धड़कन
खतों में सुनाई देती हो
आंखों की लाली कर रंग
ख़त के हर लफ्ज़ में
नज़र आता हो
इंतज़ार का हर पल
ज्यूँ ख़त में उतर आया हो
हर शब्द किसी की तड़प का
किस के कुंवारे प्रेम का
किसी के लरजते जज्बातों का
जैसे निनाद करता हो
जिसमें किसी की
प्रतीक्षारत शाम की
उदासी सिमटी हो
आंखों में गुजरी रात का
आलम हो
दिन में चुभते इंतज़ार के
पलों का दीदार हो
किसी के गेसुओं से
टपकती पानी की बूँदें
जलतरंग सुनाती हों
किसी के तबस्सुम में
डूबी ग़ज़ल हो
किसी के बहकते
ज़ज्बातों का रूदन हो
किसी के ख्यालों में
डूबी मदहोशी हो
किसी की सुबह की
मादकता हो
किसी की यादों में
गुजरी शाम की सुगंध हो
हर वो ख्यालात हो
जहाँ सिर्फ़
महबूब का ही ख्वाब हो
प्यार की वो प्यास हो
जहाँ जिस्मों से परे
रूहों के मिलन का
जिक्र हो
हर लफ्ज़ जहाँ
महबूब का ही
अक्स बन गया हो
मुझे इंतज़ार है
उस एक ख़त का
जो किसी ने कभी
लिखा ही नही
किसी ने कभी !!
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सोमवार, 1 नवंबर 2010
प्रेम-पत्र
आपका प्रेम-पत्र...
जैसे किसी वैभवशाली ‘अभाव-महल’ में
आकुल-व्याकुल
उर्मिला के समक्ष
किसी लक्ष्मण का
भावमय गृहागमन !
आपका प्रेम-पत्र...
जैसे किसी विस्मरण-गुहा में
उपेक्षित-तिरस्कृत
दमयन्ती के गिर्द
किसी निष्ठुर ‘नल’ की
सहृदय वापसी !
आपका प्रेम-पत्र...
जैसे किसी उत्तप्त मरुस्थल में
तृषावंत-क्लांत
मृग के सम्मुख
सहसा किसी नखलिस्तान का
आह्लादक प्राकट्य !
आपका प्रेम-पत्र...
जैसे किसी निर्जन-निर्तृण वनप्रांतर में
शाप-तापग्रस्त
प्रस्तर-शिला के शीश पर
किसी विरल बादल की
जीवन-जलवर्षा !
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नाम : जितेन्द्र ‘जौहर’/जन्म : 26 अगस्त, 1973 (काग़ज़ पर)20 जुलाई, 1971 (माँ ने बताया) / जन्म-स्थान : छिबरामऊ, (कन्नौज) उ.प्र./शिक्षा :एम. ए. (अंग्रेज़ी: भाषा एवं साहित्य), बी. एड., सी.सी.ए.
पी.जी. स्तर पर बैच टॉपर / अ.भा.वै.महासभा द्वारा ‘रजत-प्रतिमा’ से सम्मानित।
लेखन-विधाएँ : गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तछंद, हाइकू, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य, लघुकथा,समीक्षा, भूमिका, आलेख, आदि। हिन्दी एवं अंग्रेज़ी में समानान्तर लेखन।
प्रकाशन : दै.‘हिन्दुस्तान’, ‘दैनिक जागरण’, ‘गाण्डीव’, साप्ता./पाक्षिक‘पाञ्चजन्य’,सीधीबात,प्रेसमैन, बहुजनविकास मासिक ‘पाखी’ गोलकोण्डा दर्पण, कल्याण(गीता प्रेस), अक्षरपर्व, अट्टहास, त्रैमा.‘समांतर’, कथाबिम्ब,वसुधा(कनाडा), सार्थक, अक्षरम् संगोष्ठी, व्यंग्य-यात्रा, सरस्वती सुमन, अक्षत्,युगीन-काव्या, मरु-गुलशन, चक्रवाक्, सरोपमा, गुफ़्तगू, व्यंग्य-तरंग,मेकलसुता, तेवरी-पक्ष, वार्षिक ‘हास्यम्-व्यंग्यम्’, हस्तक्षेप, आदि सहित
देश-विदेश की लगभग 200 पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। अनेकानेक महत्त्वपूर्ण समवेत संग्रहों में रचनाएँ संकलित।
सक्रिय योगदान : सम्पादकीय सलाहकार ‘प्रेरणा’(शाहजहाँपुर,उ.प्र.)/विशेष सहायोगी ‘प्रयास’(अलीगढ़,उ.प्र.) एवं ‘विविधा’(उत्तराखण्ड)।
प्रसारण : ई.टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुदगुदी’ में अनेक एपीसोड प्रसारित।आकाशवाणी से एकल काव्य-पाठ, साक्षात्कार एवं गोष्ठी आदि के दर्जनाधिक प्रसारण।
वेब मैग्ज़ीन्स एवं न्यूज़ पोर्टल्स पर रचनात्मक उपस्थिति।वीडियो एलबम में फ़िल्मांकित गीत शामिल।सिटी चैनल्स पर सरस कव्य-पाठ।
काव्य-मंच : संयोजन एवं प्रभावपूर्ण संचालन के लिए विशेष पहचान।ओजस्वी व मर्यादित हास्य-व्यंग्यपूर्ण काव्य-पाठ का प्रभावी निर्वाह।
भूमिका-लेखन : देश के अनेक सुप्रसिद्ध लेखकों की कृतियों में सारगर्भित भूमिका-लेखन।
अनुवाद : अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ऑफ़रिंग्स’ का हिन्दी अनुवाद।
संपादन : ‘अशोक अंजुम: व्यक्ति एवं अभिव्यक्ति’ (समग्र मूल्यांकनपरक कृति)।‘अरण्य का सौन्दर्य’ (डॉ. इन्दिरा अग्रवाल के सृजन पर आधारित समीक्षा-कृति)।‘त्योहारों के रंग, कविता के संग’ (तैयारी में...)।
विशेष : अनेक काव्य-रचनाएँ संगीतबद्ध एवं गायकों द्वारा गायन।राष्ट्रीय/ प्रान्तीय/ क्षेत्रीय स्तर पर विविध साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं के निर्णायक-मण्डल में शामिल। उ. म. क्षे. सांस्कृतिक केन्द्र, (सांस्कृतिक मंत्रालय, भारत सरकार)एवं‘स्टार इण्डिया फ़ाउण्डेशन’ द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में ‘फोनेटिक्स’,‘सेल्फ़
डेवलपमेण्ट’,‘कम्यूनिकेशन एण्ड प्रेज़ेण्टेशन स्किल’, आदि विषयों पर कार्यशालाओं में रिसोर्स पर्सन/मुख्य वक्ता के रूप में प्रभावपूर्ण भागीदारी।
सम्मान/पुरस्कार:अनेक सम्मान एवं पुरस्कार (समारोहपूर्वक प्राप्त)। जैसे- पं. संतोष तिवारी स्मृति सम्मान, साहित्यश्री(के.औ.सु.ब. इकाई मप्र), नागार्जुन सम्मान, साहित्य भारती, महादेवी वर्मा सम्मान, आदि के अतिरिक्त विभिन्न प्रशस्तियाँ व स्मृति-चिह्न प्राप्त। प्रकाशित रचनाओपर 500-600 से अधिक प्रशंसा व आशीष-पत्र प्राप्त। अंतर्जाल पर जौहरवाणी के माध्यम से सक्रियता.
सम्प्रति : अंग्रेज़ी-अध्यापन (ए.बी.आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र, उप्र 231218), भारत.
सम्पर्क : आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र, (उ.प्र.) 231218 भारत.
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सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
तुम्हें बदलना होगा !
जीवन की राहें
बहुत हैं पथरीली
तुम्हें गिर कर
फिर संभलना होगा ।
भ्रम की बाहें
बहुत हैं हठीली
छोड़ बन्धनों को
कुछ कर गुजरना होगा ।
दुनिया की निगाहें
बहुत हैं नोकीली
तुम्हें बचकर
आगे बढ़ना होगा ।
रिश्तों की हवाएँ
बहुत हैं जकड़ीली
छोड़ तृष्णा को
मुक्त हो जाना होगा ।
ऐ ‘मन’
तुम्हें बदलना होगा
बदलना होगा
बदलना होगा !!
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सोमवार, 18 अक्तूबर 2010
प्रथम प्रणय की उष्मा : नीरजा द्विवेदी
प्रथम प्रणय में जो ऊष्मा थी
और कहीं वह बात नहीं थी .
सुन प्रियतम पदचाप सिहरकर
कर्णपटों में सन-सन होती थी
स्वेद बिन्दु झलकते मुख पर
तीव्र हृदय की धडकन होती थी.
करतल आवृत्त मुखमन्डल पर
व्रीडा की अनुपम सुषमा थी.
लज्जा से थे जो लाल लजा के
कपोलों की न कोई उपमा थी.
विद्रुम से कोमल अधरों पर
मृदु-स्मिति छवि निखरी थी
प्रिय स्मृति में विहंस-विहंस
स्वयं सिमट कर सकुची थी.
प्रिय के प्रेम पगी दुल्हन में
प्रणय उर्मियों की तृष्णा थी.
वस्त्राभूषण सज्जित तन में
लावण्यमयी अद्भुत गरिमा थी.
निरख-निरख छवि दर्पण में
प्रमुदित-हर्षित होती थी.
स्वप्निल बंकिम चितवन में
प्रिय छवि प्रतिबिम्बित होती थी.
दो हृदयों के मौन क्षितिज पर
भावों की झंझा बहती थी.
प्रथम प्रणय में जो ऊष्मा थी
और कहीं वह बात नहीं थी.
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नामः नीरजा द्विवेदी/ शिक्षाः एम.ए.(इतिहास).वृत्तिः साहित्यकार एवं गीतकार. समाजोत्थान हेतु चिंतन एवं पारिवारिक समस्याओं के निवारण हेतु सक्रिय पहल कर अनेक परिवारों की समस्याओं का सफल निदान. सामाजिक एवं मानवीय सम्बंधों पर लेखन. ‘ज्ञान प्रसार संस्थान’ की अध्यक्ष एवं उसके तत्वावधान में निर्बल वर्ग के बच्चों हेतु निःशुल्क विद्यालय एवं पुस्तकालय का संचालन एवं शिक्षण कार्य.
प्रकाशन/ प्रसारण - कादम्बिनी, सरिता, मनोरमा, गृहशोभा, पुलिस पत्रिका, सुरभि समग्र आदि अनेकों पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित. भारत, ब्रिटेन एवं अमेरिका में कवि गोष्ठियों में काव्य पाठ, बी. बी. सी. एवं आकाशवाणी पर कविता/कहानी का पाठ। ‘
कैसेट जारी- गुनगुना उठे अधर’ नाम से गीतों का टी. सीरीज़ का कैसेट.
कृतियाँ- उपन्यास, कहानी, कविता, संस्मरण एवं शोध विधाओं पर आठ पुस्तकें प्रकाशित- दादी माँ का चेहरा, पटाक्षेप, मानस की धुंध(कहानी संग्रह,कालचक्र से परे (उपन्यास, गाती जीवन वीणा, गुनगुना उठे अधर (कविता संग्रह), निष्ठा के शिखर बिंदु (संस्मरण), अशरीरी संसार (साक्षात्कार आधारित शोध पुस्तक). प्रकाश्य पुस्तकः अमेरिका प्रवास के संस्मरण.
सम्मानः विदुषी रत्न-अखिल भारतीय ब्रज साहित्य संगम, मथुरा, गीत विभा- साहित्यानंद परिषद, खीरी, आथर्स गिल्ड आफ़ इंडिया- 2001, गढ़-गंगा शिखर सम्मान- अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन, भारत भारती- महाकोशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद, जबलपुर, कलाश्री सम्मान, लखनऊ, महीयसी महादेवी वर्मा सम्मान- साहित्य प्रोत्साहन संस्थान लखनऊ, यू. पी. रत्न- आल इंडिया कान्फ़रेंस आफ़ इंटेलेक्चुअल्स, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान- सर्जना पुरस्कार.
अन्य- अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश पुलिस परिवार कल्याण समिति के रूप में उत्तर प्रदेश के पुलिसजन के कल्याणार्थ अतिश्लाघनीय कार्य. भारतीय लेखिका परिषद, लखनऊ एवं लेखिका संघ, दिल्ली की सक्रिय सदस्य.
संपर्क- 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनऊ. दूरभाषः 2304276 , neerjadewedy@yahoo.com
सोमवार, 11 अक्तूबर 2010
करीब आने तो दो..
अपनी बाहों के घेरे में, थोडा करीब आने तो दो.
सीने से लगा लो मुझे, थोडा करार पाने तो दो.
छुपा लो दामन में, छांव आंचल की तो दो .
सुलगते मेरे एह्सासो को, हमदर्दी की ठंडक तो दो.
दिवार-ए-दिल से चिपके दर्द को आंसुओं में ढलने तो दो .
शब्दों को जुबा बनने के लिए, जमी परतों को जरा पिघलने तो दो.
पलकों के साये में ले लो मुझे, स्पर्श में विलीन होने तो दो.
मासूम सी बन जाऊ मैं, अपनी गोद में गम भुलाने तो दो.
जिंदगी की तेज धूप से क्लांत हारा पथिक हू मैं ,
प्रेम सुधा बरसा के जरा, कराह्ती वेदनाओ को क्षीण होने तो दो !!
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सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
काम-धनु पर खिंची रति-प्रत्यंचा : महेश चंद्र द्विवेदी
मधुशाला में तो आज बंदी का दिन है,
और किसी मसखरे ने
ठंडई मॆं भंग भी नहीं घोली है;
फिर क्यूं आज सुरूर है ऐसा भरपूर
कि दो टांग की सीढी भी लगती है सलोनी
और लगती हर बनियाइन इक चोली है?
वृंदावन में गोपिकाऒं ने
माखन के मलौटे हैं सब खुले छोड़ दिये
कृष्ण हैं कि
आज उन्हें कानी आंख भी न देख रहे;
क्यूं उन्हें कदम्बों में भी दिखती है
बरसाने की राधा की सूरत भोली है?
चंहुदिश प्यार का कैसा प्रवाह है,
कि गौना तो गंगा का है,
पर छंगा को लगता अपना विवाह है;
पलंग पर लेटे
कल के जन्में छौने तक को,
अपना ही पालना लगता पत्नी की डोली है?
भ्रमर भरमाये हुए
क्यारियों में भटक रहे,
पुष्प की पंखुड़ियों में
पकड़ जाने को मटक रहे,
क्यूं उन्हें अप्रस्फुटित कली भी
लगती ज्यूं पूर्णतः परागरस घोली है?
बुढ़ऊ को भी क्यूं आज
साली-सलहज हैं लगती बड़ी प्यारी,
और वे भी बढ़चढ़कर
खांखर जीजा से कर रहीं हैं यारी;
छुटका देवर क्यूं हो गया दिवाना,
कि भौजी की डांट भी लगती ठिठोली है?
वसंत है बौराया हुआ
है छोड़ रहा अविरल अनंग-वाण,
ऐसी है उमंग और स्फूर्ति उनमें
कि मृत में भी भर दें प्राण;
कामधनु पर खिंची रति-प्रत्यंचा
उसने होली पर कब खोली है?
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नाम: महेश चंद्र द्विवेदी/जन्म-स्थान एवं जन्मतिथिः मानीकोठी, इटावा / 7 जुलाई, 1941/ शिक्षाः एम. एस. सी./भैतिकी/-लखनऊ विश्वविद्यालय /गोल्ड मेडलिस्ट/-एम. एस. सी./सोशल प्लानिंग/-लंदन स्कूल आफ़ इकोनोमिक्स- डिप्लोमा इन पब्लिक एडमिनिसट्रेशन- विशारद/. देश-विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन और आकाशवाणी-दूरदर्शन इत्यादि पर प्रसारण. भारत सहित विदेशों में भी मंचों पर पाठ. रामायण ज्ञान केन्द्र, यू. के. /बर्मिंघम-2007 और विश्व हिंदी सम्मेलन, /न्यूयार्क-२००७ में भागीदारी. विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित- अलंकृत.कुल 7 पुस्तकें प्रकाशित और तीन प्रकाशनाधीन . प्रकाशित पुस्तकें- 1.उर्मि- उपन्यास 2.सर्जना के स्वर- कविता संग्रह 3.एक बौना मानव- कहानी संग्रह 4. सत्यबोध- कहानी संग्रह 5.क्लियर फ़ंडा- व्यंग्य संग्रह 6.भज्जी का जूता- व्यंग्य संग्रह 7. प्रिय अप्रिय प्रशासकीय प्रसंग- संस्मरण 8. अनजाने आकाश में- कविता संग्रह . प्रकाशनाधीन- 1.भीगे पंख- उपन्यास २. मानिला की योगिनी- उपन्यास 3.कहानी संग्रह. आई. पी. एस.- पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत. सम्प्रति साहित्य और समाज सेवा में रत. डा. जितेंन्द्र कुमार सिंह ‘संजय’ द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी एवं उनकी पत्नी के साहित्य पर ‘साहित्यकार द्विवेदी दम्पति’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित, एम. फ़िल, लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्रा कु.श्रुति शुक्ल द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी के साहित्य पर शोध. संपर्क :‘ज्ञान प्रसार संस्थान’, 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनऊ -226010 / फोनः 2304276 / 9415063030
ई मेलः maheshdewedy@yahoo.com
सोमवार, 27 सितंबर 2010
मिलन को आतुर पंछी
आ ख्यालों की गुफ्तगू
तुझे सुनाऊँ
एक वादे की
शाख पर ठहरी
मोहब्बत तुझे दिखाऊँ
हुस्न और इश्क की
बेपनाह मोहब्बत के
नगमे तुझे सुनाऊँ
हुस्न : इश्क , क्या तुमने कल चाँद देखा ?
मैंने उसमें तुम्हें देखा
इश्क : हाँ , कोशिश की
लेकिन मुझे सिर्फ तुम दिखीं
चाँद कहीं नही
हुस्न : आसमान पर लिखी तहरीर देखी
इश्क : नहीं , तेरी तस्वीर देखी
हुस्न : क्या मेरी आवाज़ तुम तक पहुँचती है ?
इश्क : मैं तो सिर्फ तुम्हें ही सुनता हूँ
क्या कोई और भी आवाज़ होती है ?
हुस्न : मिलन संभव नही
इश्क : जुदा कब थे
हुस्न : मैं अमानत किसी और की
तू ख्याल किसी और का
इश्क : या खुदा
तू मोहब्बत कराता क्यूँ है ?
मोहब्बत करा कर
हुस्न-ओ-इश्क को फिर
मिलवाता क्यूँ नही है ?
इश्क के बोलों ने
हुस्न को सिसका दिया
हिमाच्छादित दिल की
बर्फ को भी पिघला दिया
इश्क के बोलो के
दहकते अंगारों पर
तड़पते हुस्न का
जवाब आया
तेरी मेरी मोहब्बत का अंजाम
खुदा भी लिखना भूल गया
वक़्त की दीवार पर
तुझे इश्क और
मुझे हुस्न का
लबादा ओढा गया
हमें वक़्त की
जलती सलीब पर
लटका गया
और शायद इसीलिए
तुझे भी वक़्त की
सलाखों से बाँध दिया
मुझे भी किसी के
शीशमहल का
बुत बना दिया
तेरी मोहब्बत की तपिश
नैनो से मेरे बरसती है
तेरे करुण क्रंदन के
झंझावात में
मर्यादा मेरी तड़पती है
प्रेमसिन्धु की अलंकृत तरंगें
बिछोह की लहर में कसकती हैं
हिमशिखरों से टकराती
अंतर्मन की पीड़ा
प्रतिध्वनित हो जाती है
जब जब तेरे छालों से
लहू रिसता है
देह की खोल में लिपटी
रूहों के यज्ञ की पूर्णाहूति
कब खुदा ने की है ?
हुस्न की समिधा पर
इश्क के घृत की आहुति
कब पूर्णाहूति बन पाई है
फिर कहो, कब और कैसे
मिलन को परिणति
मिल पायेगी
हुस्न - ओ - इश्क
खुदाई फरमान
और बेबसी के
मकडजाल में जकड़े
रूह के फंद से
आज़ाद होने को
तड़फते हैं
इस जनम की
उधार को
अगले जनम में
चुकायेंगे
ऐसा वादा करते हैं
प्रेम के सोमरस को
अगले जनम की
थाती बना
हुस्न और इश्क ने
विदा ले ली
रूह के बंधनों से
आज़ाद हो
अगले जनम की प्रतीक्षा में
मिलन को आतुर पंछी
अनंत में विलीन हो गए
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मंगलवार, 21 सितंबर 2010
यौवन
सोने की थाली में यदि
मैं चांदनी भर पाऊँ,
प्रेम रूप पर गोरी तेरे
भर भर हाथ लुटाऊँ।
हवा में घुल पाऊँ यदि
तेरी सांसो मे बस जाऊँ,
धड़कन हृदय की
वक्ष के स्पंदन मैं बन जाऊँ।
अलसाया सा यौवन तेरा
अंग अंग में तरुणाई,
भर लूँ मैं बांहे फ़ैला
बन कर तेरी ही अंगड़ाई।
चंदन बन यदि तन से लिपटूं
महकूँ कुंआरे बदन सा,
मदिरा बन मैं छलकूँ
अलसाये नयनों से प्रीत सा।
स्वछंद-सुवासित-अलकों में
वेणी बन गुंध जाऊँ,
बन नागिन सी लहराती चोटी
कटि स्पर्श सुख पाऊँ।
अरुण अधर कोमल कपोल
बन चंद्र किरन चूम पाऊँ,
सेज मखमली बन
तेरे तन से लिपट जाऊँ।
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गुरुवार, 16 सितंबर 2010
कहना चाहती हूं ...
बहुत कुछ कहना चाहती हूं
जताना चाहती हूं
हवाओं से
गुलाबों से
खुश्बुओं से
जो मन में है
कि तुम क्या हो !!!
मेरे जीवन में ,
पर
कुछ कहना चाहूं
तो
होंठ संकोच से
सिमट कर रह जाते है
चुप सी छा जाती है
अर्थों पर
और वह चुप्पी
बयां कर देती है
जो लफ़जों के बंधे किनारे
से बहुत अधिक
नीले आसमां तक
शून्य के चहुं ओर
फैल कर
पत्तों की
सर सर
भोर की खन खन
से भी अधिक
होती है !
तब सोचूं
तुम स्वर हो मेरे
और
मैं
तुम्हारा
मौन वर्णन !
किरण राजपुरोहित नितिला / जोधपुर/ रूचि-साहित्य पढना,कविता कहानी लिखना, फोटोग्राफी , स्कैच बनाना, तैल चित्रकारी करना ,ऐतिहासिक जगह देखना/ मेरे बारे में : छोटी छोटी खुशियां जो अनमोल है ,बस वही तो सही जिंदगी है उन में से एक यह ब्ब्ब्लॉग. ब्ब्लॉग की दुनिया में मैं एक बूंद हूं । पूरे वजूद के साथ् खनकती हूं। कभी आर्टिस्ट कभी लिखना और घर की रानी हूं तो राज तो करती ही हूं. अंतर्जाल पर भोर की पहली किरण के माध्यम से सक्रियता.
शनिवार, 11 सितंबर 2010
कहां थमता है प्यार
प्रेमी
गौरैये का वो जोड़ा है
जो समाज के रौशनदान में
उस समय घोसला बनाना चाहते हैं
जब हवा सबसे तेज बहती हो
और समाज को प्रेम पर
उतना एतराज नहीं होता
जितना कि घर में ही
एक और घर तलाशने की उनकी जिद पर
शुरू में
खिड़की और दरवाजों से उनका आना-जाना
उन्हें भी भाता है
भला लगता है चांय-चू करते
घर भर में घमाचौकड़ी करना
पर जब उनके पत्थर हो चुके फर्श पर
पुआल की नर्म सूखी डांट और पत्तियां गिरती हैं
एतराज
उनके कानों में फुसफुसाता है
फिर वे इंतजार करते हैं
तेज हवा
बारिश
और लू का
और देखते हैं
कि कब तक ये चूजे
लड़ते हैं मौसम से
बावजूद इसके
जब बन ही जाता है घोंसला
तब वे जुटाते हैं
सारा साजो-सामान
चौंकी लगाते हैं पहले
फिर उस पर स्टूल
पहुंचने को रोशनदान तक
और साफ करते हैं
कचरा प्रेम का
और फैसला लेते हैं
कि घरों में रौशनदान
नहीं होने चाहिए
नहीं दिखने चाहिए
ताखे
छज्जे
खिड़कियां में जाली होनी चाहिए
पर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
कहां थमता है प्यार
जब वे सबसे ज्यादा
निश्चिंत
और बेपरवाह होते हैं
उसी समय
जाने कहां से
आ टपकता है एक चूजा
भविष्यपात की सारी तरकीबें
रखी रह जाती हैं
और चूजा
बाहर आ जाता है..!!
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नाम - अरूणा राय
उपनाम - रोज
जन्म : १८ नवंबर १९८४ को इलाहाबाद में।
शिक्षा : बी.एससी. इलाहाबाद से
कार्यक्षेत्र : पुलिस सेवा में सब इंस्पेक्टर।
रुचियाँ : लेखन, चित्रकला व नृत्य
ई मेल- arunarai2010@gmail.com
सोमवार, 6 सितंबर 2010
तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.
तेरे प्यार की चाहत में ये दिये जलाया करती हूँ.
खामोश सितारों में ये तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.
आकाश में ज्यूँ बदली लुका-छिपी सी करती हो
नर्म बाहों के ख़यालों में यूँ ही सिमटा करती हूँ.
तमन्नाओ के पंख लगा हवा से बातें करती हूँ.
हिज्र की रातो में बस तुझको ही ढूंढा करती हूँ.
लब चूम तब मेरी आँखों में तुम भी झाँका करते हो ..
सवालिया नज़रों से मैं भी ये चाहत जाना करती हूँ.
बिखर जाती हूँ मैं तब बेताब हो तेरी बाहों में..
ये शब् न ढले, रब से यूँ दुआएं माँगा करती हूँ.
उदास हो यूँ तेरी यादों के दिये जलाया करती हूँ.
खामोश सितारों में ये तन्हा चाँद निहारा करती हूँ.
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नाम : अनामिका (सुनीता)
जन्म : 5 जनवरी, 1969
निवास : फरीदाबाद (हरियाणा)
शिक्षा : बी.ए , बी.एड.
व्यवसाय : नौकरी
शौक : कुछः टूटा-फूटा लिख लेना, पुराने गाने सुनना।
मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है मन में उठी सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएं चाहे वो दुःख की हों या सुख की....मेरे भीतर चलती हैं.. ...... महसूस होती हैं ...और मेरी कलम में उतर आती हैं.
ब्लोग्स : अनामिका की सदायें और अभिव्यक्तियाँ
सोमवार, 30 अगस्त 2010
प्रेम - गीत
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कँह? पुकारूँ...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
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मंगलवार, 24 अगस्त 2010
हसरत-ए-मंजिल
न मैं बदला
न तुम बदली
न ही बदली
हसरत-ए-मंजिल
फिर क्यूं कहते हैं सभी
कि बदला सा सब नज़र आता है
शमा छुपा देती है
शब-ए-गम के
अंधियारे को
वो समझते हैं
कि हम चिरागों के नशेमन में जिया करते हैं !
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बुधवार, 18 अगस्त 2010
सपना सपना ही रहने दो
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो,
तुम्हें मुबारक हो घर अपना
दीवारों से मुझको लिपटा रहने दो,
महफ़िल में गाना तुम गीत अपने ,
ग़ज़ल मेरी है मुझे ग़ज़ल कहने दो,
लहरों ने छुआ साहिल को कई बार,
मुझे तुम्हारा अहसास ही रहने दो,
खामोश हैं लब मेरे तो कोई बात नहीं ,
कहते है कहानी आँखों के अश्क उन्हें कहने दो,
मील के पत्थर बताते हैं मंजिल का पता.
पत्थर ही सही उसे मेरा हम सफ़र रहने दो,
सब कह लेते है जज़्बात अपनी जुबान से,
कलम मेरी भी कुछ कहती है उसे कहने दो.
इंतज़ार की हद्द बाकी है अभी,
आँखों को मरने के बाद भी खुला रहने दो,
सपना सपना ही रहने दो,
सपने मैं ही सही तुम्हे अपना कहने दो.
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गुरुवार, 12 अगस्त 2010
"क्या फिर ऋतुराज का आगमन हुआ है ?"
सोमरस -सा
प्राणों को
सिंचित करता
तुम्हारा ये नेह
ज्यों प्रोढ़ता की
दहलीज पर
वसंत का आगमन
नव कोंपल सी
खिलखिलाती
स्निग्ध मुस्कान
ज्यों वीणा के तार
झनझना गए हो
स्नेहसिक्त नयनो से
बहता प्रेम का सागर
ज्यों तूफ़ान कोई
दरिया में
सिमट आया हो
सांसों के तटबंधों
को तोड़ते ज्वार
ज्यों सैलाब किसी
आगोश में
बंध गया हो
प्रेमारस में
भीगे अधर
ज्यों मदिरा कोई
बिखर गयी हो
धडकनों की
ताल पर
थिरकता मन
ज्यों देवालय में
घंटियाँ बज रही हों
आह ! ये कैसा
अनुबंध है प्रेम का
क्या फिर
ऋतुराज का
आगमन हुआ है ?
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शनिवार, 7 अगस्त 2010
रुकते थमते से ये कदम
रुकते थमते से ये कदम
अनकही कहानी कहते हैं
यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं
ख्यालों की रवानी कहते हैं
रुकते थमते.....
सीने में थी जो चाह दबी
होटों पे थी जो प्यास छुपी
स्नेह तरसती पलकों की
दिलकश कहानी कहते हैं
रुकते थमते....
धड़कन स्वतः जो तेज हुई
अधखिले लव जो मुस्काये
माथे पर इठलाती लट की
नटखट नादानी कहते हैं।
रुकते थमते....
सघन अंधेरी रातों में
ज्यों हाथ लिए हो हाथों में
दो जुगनू सी जो चमक
रही आँखों की सलामी कहते हैं
रुकते थमते...
लावण्या अपार ललाटो पर
सिंदूरी रंग यूँ गालों
पर मद्धम -मद्धम सी साँसों की
मदमस्त खुमारी कहते हैं
रुकते थमते....!!
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सोमवार, 2 अगस्त 2010
प्यार, प्यार और प्यार !!
न आसमान को मुट्ठी में,
कैद करने की थी ख्वाइश,
और न, चाँद-तारे तोड़ने की चाहत!
कोशिश थी तो बस,
इतना तो पता चले की,
क्या है?
अपने अहसास की ताकत!!
इतना था अरमान!
की गुमनामी की अँधेरे मैं,
प्यार के सागर मैं,
धुधु अपनी पहचान!!
इसी सोच के साथ,
मैंने निहारा आसमान!!!
और खोला मन को द्वार!
ताकि कुछ लिख पाऊं,
आखिर क्या है?
ढाई आखर प्यार!!
पर बिखर जाते हैं,
कभी शब्द तो कभी,
मन को पतवार!!!
रह जाती है,
कलम की मुट्ठी खाली हरबार!!!!
फिर आया याद,
खुला मन को द्वार!
कि किया नहीं जाता प्यार!!
सिर्फ जिया जाता है प्यार!!!
किसी के नाम के साथ,
किसी कि नाम के खातिर!
प्यार, प्यार और प्यार !!
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मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथधाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा,पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है,तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है..काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता. पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ.क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ, खुश हूँ.अंतर्जाल पर जिंदगी की राहें के माध्यम से सक्रियता.
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
तुम : कृष्ण कुमार यादव
सूरज के किरणों की
पहली छुअन
थोड़ी अल्हड़-सी
शरमायी हुयी
सकुचायी हुयी
कमरे में कदम रखती है
वही किरण
अपने तेज व अनुराग से
वज्र पत्थर को भी
पिघला जाती है
शाम होते ही
ढलने लगती हैं किरणें
जैसे कि अपना सारा निचोड़
उन्होंने धरती को दे दिया हो
ठीक ऐसे ही तुम हो।
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कृष्ण कुमार यादव : एक परिचय- सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक. प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण. कुल 5 कृतियाँ प्रकाशित -'अभिलाषा'(काव्य-संग्रह,2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श'(निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006),'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा'.विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त. व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा'(सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008 द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित.
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
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रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप कार्यपालन यंत्री , मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।
आपको अंतरजाल पर विश्व की किसी भी भाषा में पिंगल (काव्यशास्त्र) संबंधी दो सर्वाधिक लम्बी लेख श्रृंखलाएँ ('दोहा गाथा सनातन' हिन्दयुग्म पर ६५ कड़ियाँ, तथा 'काव्य का रचना शास्त्र' साहित्य शिल्पी पर ७५ कड़ियाँ) रचकर हिन्दी काव्य के विकास में अप्रतिम योगदान करने का गौरव प्राप्त है. आप वर्तमान में ''काव्य दोषों'' पर लेखमाला रचना हेतु जुटे हैं ताकि नवोदित कवियों को काव्य-शास्त्र के मानकों की जानकारी हो सके. उनके अनुसार: 'हिन्दी भावी विश्व भाषा है इसलिए साहित्य के विविध पक्षों पर गंभीर कार्य अंतरजाल पर किया जाना अपरिहार्य है किन्तु ऐसे सारस्वत अनुष्ठानों के प्रति अंतरजाल पाठकों की उदासीनता चिंतनीय है.'अंतर्जाल पर दिव्य नर्मदा के माध्यम से सक्रियता. आप ५० से अधिक चिट्ठों में सृजन-प्रकाशन कर रहे हैं. सम्पर्क सूत्र: सलिल.संजीव@जीमेल
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
ढलती शाम
अकसर देखा करती हूँ
शाम ढलते-2
पंछियों का झुंड
सिमट आता है
एक नपे तुले क्षितिज में
उड़ते हैं जो
दिनभर
खुले आसमां में
अपनी अलबेली उड़ान
पर....
शाम की इस बेला में
साथी का सानिध्य
पंखों की चंचलता
उनकी स्वर लहरी
प्रतीत होती
एक पर्व सी
उनके चुहलपन से बनती
कुछ आकृतियां
और
दिखने लगता
मनभावन चलचित्र
फिर शनै: शनै:
ढल जाता
शाम का यौवन
उभर आते हैं
खाली गगन में
कुछ काले डोरे
छिप जाते पंछी
रात के आगोश में
उनकी मद्धम सी ध्वनि
कर्ण को स्पर्श करती
निकल जाती है
दूर कहीं...!!
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सुमन 'मीत'/मण्डी, हिमाचल प्रदेश/ मेरे बारे में-पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”!अंतर्जाल पर बावरा मन के माध्यम से सक्रियता.
शनिवार, 17 जुलाई 2010
सार्थक संगीत
स्मृतियाँ
धुन हैं बाँसुरी की
जो सुनाई देती हैं
कहीं दूर बहुत दूर,
मन की वीणा
झंकृत हो
मिलाती है स्वर
बाँसुरी के स्वर में,
तन के घुँघुरू
लगते हैं थिरकने
वे भी हैं आतुर
मिलाने को स्वर
बाँसुरी के स्वर में
और हो जाते हैं
बाँसुरी के साथ !
तभी दुखों की थाप
झाँझ बनकर
करती है लय भंग
बजती है विषम ताल !
जब बजती है
पीड़ा की ढोलक
देती है संताप
उदास मन को
तब लेता है
आकार तांडव
और नहीं उठती
कोई तरंग उर में,
तब निद्रामग्न सुख
आहट पाकर
करते हैं नर्तन
भावों की जलतरंग पर,
कभी लास्य, कभी रास
तो कभी महारास,
मन के मंजीरे
मंगलम् की धुन पर
लगते हैं खनकने,
बाँसुरी के साथ
होता है आनंद का
प्रत्यावर्तन,
जन्म लेता है
मधुर गीत
यही तो है जीवन का
सार्थक संगीत !
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डॉ. मीना अग्रवाल
जन्म : 20 नवंबर 1947, हाथरस, काका हाथरसी की गोद में पली-बढ़ी
शिक्षा : एम.ए., पी-एच.डी., संगीत प्रभाकर
वर्तमान पद : एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिदी विभाग, आर.बी.डी. महिला महाविद्यालय, बिजनौर (उ.प्र.) साहित्य : अंदर धूप बाहर धूप (कहानी-संग्रह), सफ़र में साथ-साथ (मुक्तक-संग्रह), विचित्र किंतु सत्य, हारमोनियम एंड कैसियो गाइड, महान लोगों की कहानियाँ, आदर्श बाल कहानियाँ, आधुनिक हिदी गीतिकाव्य में संगीत (पुरस्कृत) ; जो सच कहे (हाइकु संग्रह) ; यादें बोलती हैं (कविता संग्रह) , अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में शोध-निबंधों का नियमित प्रकाशन। सहलेखन : पर्यावरण : दशा और दिशा, नारी : कल और आज, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध एवं पत्र-लेखन, हिदी-व्याकरण एवं रचना। संपादन : शोध-संदर्भ (4 खंड), हिंदी-हिंदी-अँग्रेज़ी कोश, हिंदी समांतर कोश, चुने हुए राष्ट्रीय गीत, काका की पाती, अभिनव गद्य विधाएँ, अभिनव निबंध-संकलन, अभिनव कहानी-संकलन, अभिनव एकांकी-संकलन, सूर साहित्य संदर्भ, तुलसी मानस संदर्भ, हिदी साहित्यकार संदर्भ कोश (दो खंड), तुकांत कोश प्रबंध-संपादन : काका हाथरसी अभिनंदन ग्रंथ, शोधिदशा (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका), संदर्भ अशोक चक्रधर, युगकवि निराला, सफ़र साठ साल का। प्रसारण : आकाशवाणी से कहानियों और वार्ताओं का नियमित प्रसारण, अनेक सेमिनारों में भागीदारी। पुरस्कार एवं ‘ सम्मान : द रोटरी फ़ाउंडेशन डिस्ट्रिक सर्विस अवार्ड। पॉल हैरिस फ़ैलो एवं मेजर डोनर, रोटरी फ़ाउंडेशन, रोटरी इंटरनेशनल। एडवाइजर, रिसर्च बोर्ड ऑफ़ एडवाइजर्स, दॅ अमरीकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट, अमरीका। रोटरी अंतर्राष्ट्रीय मंडल 3110, रोटरी ह्यूमन वैलफ़ेयर सोसायटी द्वारा हिंदी साहित्य एवं शोध के क्षेत्र में किए गए विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित। उज्जैन (म.प्र.) में विद्योत्तमा सम्मान समारोह में 21000 रुपए का विदुषी विद्योत्तमा सम्मान (2005), पुष्पगंधा प्रकाशन द्वारा 'स्व.श्री हरि ठाकुर पुरस्कार’ (2006), 11000 रुपए का श्री अमनसिंह आत्रेय अखिल भारतीय कृतिकार सम्मान (2007),नई दिल्ली में ‘अक्षरम्‘ द्वारा आयोजित छठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी उत्सव के सम्मान समारोह में ‘अक्षरम् हिंदी सेवा सम्मान, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘शब्द भारती सम्मान एवं ‘शब्द माधुरी सम्मान’ 2008), भारतीय वाड.मय पीठ द्वारा ‘सारस्वत साहित्य सम्मान ‘(2008),100000 रुपए का केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा 2004 का शिक्षा पुरस्कार (2008) विदेश-यात्रा : अमरीका, सिंगापुर
Email:drmeena20@gmail।com 16
सोमवार, 12 जुलाई 2010
ग़ज़ल
मै आज भी तनहा हू,
यकीन नही आता तो यकीन दिलाइये मुझे,
अब फ़िर से आये हो तो ,
एक बार फ़िर से जाकर बताइये मुझे,
अजब गम ज़दा हू मै, आज तक सहला रही हू जख्मो को
इक और नया जख्म दे जाइये मुझे,
मै बहा रही हू आज भी कतरा कतरा आसू,
हो सके इस बारिश से बचाइये मुझे,
बहुत दिनो से मै रास्ते का बेकार सा पत्थर हू,
अब तो मील का पत्थेर बनाइये मुझे,
मै चाहती हू अब तुम सोने कि मुझे दे दो इज़ाज़त ,
इस चिता से अब ना जगाइये मुझे ,
तुम बसे हो राज़ कि तरह आज भी मेरे दिल मे,
आप भी 'नीलम' सा अब ना दुनिया से छुपाइये मुझे.
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नाम : नीलम पुरी / व्यवसाय: गृहिणी / शिक्षा-स्नातक/मैं "नीलम पुरी" बहुत ही साधारण से परिवार से जुडी अति-साधारण सी महिला हूँ. अपने पति और दो बच्चों की दुनिया में बेहद खुश हूँ. घर सँभालने के साथ अपने उद्वेगों को शांत करने के लिए कागज पर कलम घसीटती रहती हूँ और कभी सोचा न था कि मेरा लिखा कभी प्रकाशित भी होगा. खैर, कुछ दोस्तों की हौसलाअफजाई के चलते आज यहाँ हूँ. अंतर्जाल पर Ahsaas के माध्यम से सक्रियता.
बुधवार, 7 जुलाई 2010
कायनात का जादू बाकी है
इनदिनों
शब्द मुझसे खेल रहे हैं
मैं पन्नों पर उकेरती हूँ
वे उड़ जाते हैं
तुम्हारे पास
ध्यानावस्थित तुम्हारी आँखों को छूकर
कहते हैं
- आँखें खोलो
हमें पढ़ो ....
मैं दौड़ दौडकर थक गई हूँ
समझाया है
-तंग नहीं करते
पर ये शब्द !
जो कल तक समझदारी की बातें करते थे
आज ख्वाब देखने लगे हैं
एक तलाश थी बड़ी शिद्दत से
रांझे की
इनदिनों मेरे शब्द
हीर के ख्वाब संजोने लगे हैं
रांझे को जगाने लगे हैं
अनकहे जज्बातों को सुनाने लगे हैं
जब भी हाथ बढा पिटारी में रखना चाहती हूँ
ये यादों की मीठी गलियों में छुप जाते हैं
कहते हैं हंसकर
" कायनात का जादू
अभी बाकी है हीर "
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(रश्मि प्रभा जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
बस एक बार आजा जानाँ
तेरी मेरी मोहब्बत
खाक हो जाती
गर तू वादा ना करती
इसी जन्म में मिलने का
एक अरसा हुआ
तेरे वादे पर ऐतबार
करते - करते
पल- छिन्न युगों से
लम्बे हो गए हैं
मगर तेरे वादे की
इन्तिहाँ ना हुई
आज जान जाने को है
आस की हर लौ
बुझने को है
तुझे पुकारता है प्यार मेरा
याद दिलाता है वादा तेरा
क्या भूल गयी हो जानाँ
मोहब्बत की तपिश से
वादे को जलाना
मेरी आवाज़ की
स्वर लहरी पर
हर रस्मो- रिवाज़ की
जंजीरों को तोड़कर
आने के वादे को
क्या भूल गयी हो
धड़कन के साथ
गुंजार होते मेरे नाम को
देख , मुझे तो
तेरी हर कसम
हर वादा
आज भी याद है
ज़िन्दगी की आखिरी
साँस तक सिर्फ
तुझे चाहने का
वादा किया था
और आज भी
उसे ही निभा रहा हूँ
इसी जन्म में
मिलन की बाट
जोह रहा हूँ
तेरे वादे की लाश
को ढोह रहा हूँ
अब तो आजा जानाँ
यारा
मुझे मेरे यार से
मिला जा जानाँ
मेरे प्यार को
मेरे इंतज़ार को
अमर बना जा जानाँ
बस एक बार
आजा जानाँ
बस एक बार…!!
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नाम : वंदना गुप्ता / व्यवसाय: गृहिणी / निवास : नई दिल्ली / मैं एक गृहणी हूँ। मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है तथा झूठ से मुझे सख्त नफरत है। मैं जो भी महसूस करती हूँ, निर्भयता से उसे लिखती हूँ। अपनी प्रशंसा करना मुझे आता नही इसलिए मुझे अपने बारे में सभी मित्रों की टिप्पणियों पर कोई एतराज भी नही होता है। मेरा ब्लॉग पढ़कर आप नि:संकोच मेरी त्रुटियों को अवश्य बताएँ। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि हरेक ब्लॉगर मित्र के अच्छे स्रजन की अवश्य सराहना करूँगी। ज़ाल-जगतरूपी महासागर की मैं तो मात्र एक अकिंचन बून्द हूँ। अंतर्जाल पर जिंदगी एक खामोश सफ़र के माध्यम से सक्रियता.
शनिवार, 26 जून 2010
रात से रिश्ता पुराना हुआ
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
यह न पूछो हुआ,
कब व कैसे कहाँ,
धड़कनों की गुज़ारिश थी,
मैं चल पड़ा,
बेड़ियाँ थी पड़ी,
ख्वाइसों पर बड़ी,
उल्फतों के मुहाने पे,
मैं था खड़ा,
कुछ न आया नज़र,
बस यहीं था लहर,
ढूढ़ लूँगा कही,
मैं कभी ना कभी,
इस ज़मीं पर नही,आसमाँ में सही,
बादलों के शहर में ठिकाना हुआ|
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
इश्क मजबूर था,
प्यार में चूर था,
जब हुआ था असर,
तब हुई ना खबर,
खामखाँ बीती रातें,
वो मोहब्बत की बातें,
कर रही थी पहल,
मन रहा था मचल,
हमनशीं,हमनवां,
क्या पता है कहाँ,
जो मिले गर सनम,
ए खुदा की कसम,
कह दूं सब कुछ बयाँ,
जो कभी मुझसे उस पल बयाँ ना हुआ|
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
सच कहूँ,अब लगा,
उसमे कुछ बात थी,
सूख सावन रहा,
जिसमे बरसात थी,
सोच में मैं रहा,
बेखुदी ने कहा,
जो थी दिल मे बसी,
चाँद सी थी हसीं,
क्या पता वो कहाँ,
चाँद का कारवाँ,
अब सजाती हो वो,
छुप के हौले से,
मुझको बुलाती हो वो,
जिसको देखे कसम से जमाना हुआ,
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
अब तो ये आस है,
एक विश्वास है,
वो छुपी हो भले,
चाँद तो पास है,
सोचकर आजकल,
साथ लेकर ग़ज़ल,
आसमाँ की गली,
रोज जाता हूँ मैं,
जिंदगी ख्वाब से,
अब बनाता हूँ मैं,
जिस हसीं ख्वाब से,दिल बहलता न था,
अब वहीं दिल्लगी का बहाना हुआ,
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
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(विनोद कुमार पाण्डेय जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
मंगलवार, 22 जून 2010
मोहब्बत
कल तुझे डूबते हुए सुर्ख सूरज के साये में
फिर एक बार देखा ...
रात, बड़ी देर तक तेरा साया मेरे साथ ही था ..
एक ख्वाब तेरा चेहरा लिए ;खुदा के घर से
दबे पाँव मेरी नींद की आगोश में सिमट आया ...
और रात की गहराती परछाईयो ने ;
तुझे और मुझे ;
अपने इश्क़ की बाहों में समेट लिया ...
सुबह देखा तो तेरी हथेली में मेरा नाम खुदा हुआ था ..
मेरे जिस्म में तेरे अहसास भरे हुए थे ...
बादलो से भरे आसमान से खुदा ने झाँका और
हमें कुछ मोती दिए मोहब्बत की सौगात में ....
कुछ तुमने अपने भीतर समा लिया
कुछ मेरे पलकों के किनारों पर ;
आंसू बन कर टिक गए ...
खुदा ने जो नूर की बूँद दी है
मोहब्बत के नाम पर ...
उसे अब ताउम्र एक ही ओक में पीना है ;
जिसमे एक हथेली तेरी हो
और एक हथेली मेरी हो .....
आओ इस अहसास को जी ले ,
जिसे मोहब्बत कहते है ...!!
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नाम : विजय कुमार सपत्ति, Working as Sr.G.M.-Marketing in a Hyderabad based company and my interests includes music, books, poetry,photography, movies etc. मुझे मेरी तलाश है .मैं वक़्त के जंगलो में भटकता एक साया हूँ, जिसे एक ऐसे बरगद की तलाश है जहाँ वो कुछ सांस ले सके..ज़िन्दगी की.अंतर्जाल पर THE SOUL OF MY POEMS कविताओं के मन से के माध्यम से सक्रियता.
Mob.- 09849746500
email- vksappatti@gmail.com
शुक्रवार, 18 जून 2010
ओ मेरे मनमीत!
सोच रहा-
तुम पर ही रच दूँ
मैं कोई नवगीत!
शब्द-शब्द में
यौवन भर दूँ,
पंक्ति-पंक्ति में प्रीत!
हर पद में
मुस्कान तुम्हारी
ज्यों मिश्री-नवनीत!
सोच रहा-
मैं ही मात्र
सुन सकूँ उसका
मधुर-मधुर संगीत!
जिसके हर सुर में
तुम ही हो
ओ मेरे मनमीत!
सोच रहा-
जो भी राग
सजा हो उसमें,
हो उसमें नवरीत!
जिसके गुंजन में
गुंजित हो
हर पल मन की जीत!
सोच रहा-
(रावेन्द्र कुमार रवि जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
शनिवार, 12 जून 2010
झंकृत
झन - झन झंकृत हृदय आज है
वपु में बजते सभी साज हैं ।
पी आने का मिला भास है
मिटेगा चिर विछोह त्रास है ।
मंद - मंद मादक बयार है
खिल प्रकृति ने किया शृंगार है ।
आनन सरोज अति विलास है
कानन कुसुम मधु उल्लास है ।
अंग - अंग आतप शुमार है
देह नही उर कि पुकार है ।
दंभ, मान, धन सब विकार है
प्रेम ही जीवन आधार है ।
रोम - रोम रस, रुधित राग है
मिला जो तेरा अनुराग है ।
मन सुरभित, तन नित निखार है
नभ - मुक्त, तल नव विस्तार है ।
घन - घन घोर घटा अपार है
संग तुम मेरा अभिसार है ।
अनंत चेतना का निधान है
मिलन हमारा प्रभु विधान है ।
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सोमवार, 7 जून 2010
गुलमोहर
याद है तुम्हें ?
एक दिन
अचानक आ कर
खड़े हो गए थे
मेरे सामने तुम
और पूछा था तुमने
कि - तुम्हें
गुलमोहर के फूल
पसंद हैं ?
तुम्हारा प्रश्न सुन
मैं स्वयं
पूरी की पूरी
प्रश्नचिह्न बन गयी थी ।
न गुलाब , न कमल
न मोगरा , न रजनीगंधा ।
पूछा भी तो क्या
गुलमोहर?
आँखों में तैरते
मेरे प्रश्न को
शायद तुमने
पढ़ लिया था
और मेरा हाथ पकड़
लगभग खींचते हुए से
ले गए थे
निकट के पार्क में ।
जहाँ बहुत से
गुलमोहर के पेड़ थे।
पेड़ फूलों से लदे थे
और वो फूल
ऐसे लग रहे थे मानो
नवब्याहता के
दहकते रुखसार हों ।
तुमने मुझे
बिठा दिया था
एक बेंच पर
जिसके नीचे भी
गुलमोहर के फूल
ऐसे बिछे हुए थे
मानो कि सुर्ख गलीचा हो।
मेरी तरफ देख
तुमने पूछा था
कि
कभी गुलमोहर का फूल
खाया है ?
मैं एकदम से
अचकचा गयी थी
और तुमने
पढ़ ली थी
मेरे चेहरे की भाषा ।
तुमने उचक कर
तोड़ लिया था
एक फूल
और उसकी
एक पंखुरी तोड़
थमा दी थी मुझे ।
और बाकी का फूल
तुम खा गए थे कचा-कच ।
मुस्कुरा कर
कहा था तुमने
कि - खा कर देखो ।
ना जाने क्या था
तुम्हारी आँखों में
कि
मैंने रख ली थी
मुंह में वो पंखुरी।
आज भी जब
आती है
तुम्हारी याद
तो
जीव्हा पर आ जाता है
खट्टा - मीठा सा
गुलमोहर का स्वाद।
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बुधवार, 2 जून 2010
अहसास : आकांक्षा यादव
एक अहसास
किसी के साथ का
किसी के प्यार का
अपनेपन का
एक अनकहा विश्वास
जो कराता है अहसास
तुम्हारे साथ का
हर पल, हर क्षण
इस क्षणिक जीवन की
क्षणभंगुरता को झुठलाता
ये अहसास
शब्दों से परे
भावनाओं के आगोश में
प्रतिपल लाता है
तुम्हें नजदीक मेरे
लौकिकता की
सीमा से परे
अलौकिक है
अहसास तुम्हारा !!
(आकांक्षा यादव जी के जीवन-परिचय के लिए क्लिक करें)
मंगलवार, 25 मई 2010
ऐ सुनो !
सुनो! पहले जब तुम रूठ जाया करते थे न,
यूँ ही किसी बेकार सी बात पर
मैं भी बेहाल हो जाया करती थी
चैन ही नहीं आता था
मनाती फिरती थी तुम्हें
नए नए तरीके खोज के
कभी वेवजह करवट बदल कर
कभी भूख नहीं है, ये कह कर
अंत में राम बाण था मेरे पास
अचानक हाथ कट जाने का नाटक ..
तब तुम झट से मेरी उंगली
रख लेते थे अपने मुहँ में
और खिलखिला कर हंस पड़ती थी मैं..
फिर तुम भी झूठ मूठ का गुस्सा कर
ठहाका लगा दिया करते थे।
पर अब न जाने क्यों ....
.न तुम रुठते हो
न मैं मनाती हूँ
दोनों उलझे हैं
अपनी अपनी दिनचर्या में
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
आज फिर सब्जी काटते वक़्त
हाथ कट गया है
ऐ सुनो!
तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर
मनाने को जी करता है !!
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नाम- शिखा वार्ष्णेय / moscow state university से गोल्ड मैडल के साथ T V Journalism में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चेनेंल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया ,हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेजी ,और रुसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.वर्तमान में लन्दन में रहकर स्वतंत्र लेखन जारी है.अंतर्जाल पर स्पंदन (SPANDAN)के माध्यम से सक्रियता.
गुरुवार, 20 मई 2010
प्यार का सार
दस्तकें यादों की
सोने नहीं देतीं
दरवाज़े का पल्ला
शोर करता है
खट खट खट खट...
सांकल ही नहीं
तो हवाएँ नम सी
यादों की सिहरन बन
अन्दर आ जाती हैं
पत्तों की खड़- खड़
मायूस कर जाती हैं !
कुछ पन्ने मुड़े-तुड़े लेकर
अरमानों की आँखें खुली हैं
एक ख़त लिख दूँ.....
संभव है दस्तकों की रूह को
चैन आ जाए
हवाएँ एक लोरी थमा जाए
भीगे पन्ने
प्यार का सार बन जायें !
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नाम- रश्मि प्रभा
स्नातक - हिंदी प्रतिष्ठा
रूचि- शब्दों के साथ जीना
प्रकाशन- 'कादम्बिनी', 'अर्गला', वोमेन ऑन टॉप', 'पुरवाई '(यूके से प्रकाशित पत्रिका), 'जनसत्ता' आदि में रचनाएँ प्रकाशित, हिन्दयुग्म में ऑनलाइन कवि-सम्मलेन सञ्चालन.
प्रकाशित कृतियाँ- शब्दों का रिश्ता (काव्य-संग्रह), अनमोल संचयन (काव्य-संग्रह का संपादन)
मेरे बारे में- सौभाग्य मेरा की मैं कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हूँ और मेरा नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त ने किया और मेरे नाम के साथ अपनी स्व रचित पंक्तियाँ मेरे नाम की..."सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन" , शब्दों की पांडुलिपि मुझे विरासत मे मिली है. अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दम तोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकून हैं. अंतर्जाल पर मेरी भावनाएं के माध्यम से सक्रियता.
शुक्रवार, 14 मई 2010
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।
अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।।
न वो प्यार चाहता है, न दुलार चाहता है,
जीवित पिता से पुत्र, अब अधिकार चाहता है,
सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
घूँघट की आड़ में से, दुल्हन का झाँक जाना,
भोजन परस के सबको, मनुहार से खिलाना,
ये दृश्य देखने अब, दुश्वार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
वो सास से झगड़ती, ससुरे को डाँटती है,
घर की बहू किसी का, सुख-दुख न बाटँती है,
दशरथ, जनक से ज्यादा बेकार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
जीवन के हाँसिये पर, घुट-घुट के जी रहे हैं,
माँ-बाप सहमे-सहमे, गम अपना पी रहे हैं,
कल तक जो पालते थे, अब भार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
जन्म- 4 फरवरी, 1951 (नजीबाबाद-उत्तरप्रदेश)
1975 से खटीमा (उत्तराखण्ड) में स्थायी निवास।
राजनीति- काँग्रेस सेवादल से राजनीति में कदम रखा।
केवल काँग्रेस से जुड़ाव रहा और नगर से लेकर
जिला तथा प्रदेश के विभिन्न पदों पर कार्य किया।
शिक्षा
- एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)
तकनीकी शिक्षाः आयुर्वेद स्नातक
सदस्य
- अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार,
(सन् 2005 से 2008 तक)
उच्चारण पत्रिका का सम्पादन
(सन् 1996 से 2004 तक)
साहित्यिक अभिरुचियाँ-
1965 से लिखना प्रारम्भ किया जो आज तक जारी है।
व्यवसाय- समस्त वात-रोगों की आयुर्वेदिक पद्धति से चिकित्सा करता हूँ।
1984 से खटीमा में निजी विद्यालय का संचालक/प्रबन्धक हूँ।
अंतर्जाल पर अपने मुख्य ब्लॉग उच्चारण के माध्यम से सक्रिय.
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा,
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308.
फोनः05943-250207, 09368499921, 09997996437
रविवार, 9 मई 2010
एक अलग एहसास
नित पुष्प खिला कर,खुशियों के,
मन बगिया महकाया तुमने,
आँखों के आँसू लूट लिये,
हँसना सिखलाया तुमने,
सूना,वीरान,अधूरा था,
तुमसे मिलकर परिपूर्ण हुआ,
दिल के आँगन में तुम आई,
जीवन मेरा संपूर्ण हुआ,
किस मन से तुझको विदा करूँ,
तुम ही खुद मुझको बतलाओ,
मैं कैसे कह दूँ तुम जाओ.
मैं एक अकेला राही था,
संघर्ष निहित जीवन पथ पर,
तुम जब से हाथ बढ़ायी हो,
यह धरती भी लगती अम्बर,
व्याकुल नयनों की आस हो तुम,
मेरी पूजा तुम,विश्वास हो तुम,
हर सुबह तुम्ही से रौशन है,
हर एक पल की एहसास हो तुम,
एहसासों का मत दमन करो,
विश्वासों को मत दफ़नाओं,
मैं कैसे कह दूँ, तुम जाओ,
सब बंद घरों में क़ैद पड़े,
मैं किससे व्यथा सुनाऊँगा,
सुख में तो देखो भीड़ पड़ी,
दुख किससे कहने जाऊँगा,
बरसों तक साथ निभाया है,
अब ऐसे मुझको मत छोड़ो,
हम संग विदा लेंगे जग से,
अपने वादों को मत तोडो,
मत बूझो मेरे मन को यूँ,
मत ऐसे कह कर तड़पाओ,
मैं कैसे कह दूँ, तुम जाओ.
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नाम: विनोद कुमार पांडेय
जन्म स्थान: वाराणसी( उत्तर प्रदेश)
कार्यस्थल: नोएडा( उत्तर प्रदेश)
प्रारंभिक शिक्षादीक्षा वाराणसी से संपन्न करने के पश्चात नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से एम.सी.ए. करने के बाद नोएडा में ही पिछले 2 साल से एक सॉफ़्टवेयर कंपनी मे इंजीनियर के पद पर कार्य कर रहा हूँ..खुद को गैर पेशेवर कह सकता हूँ, परंतु ऐसा लगता है की शायद साहित्य की जननी काशी की धरती पर पला बढ़ा होने के नाते साहित्य और हिन्दी से एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ा हुआ प्रतीत होता है.लिखने और पढ़ने में सक्रियता २ साल से,पिछले 1 वर्ष से ब्लॉग पर सक्रिय,हास्य कविता और व्यंग में विशेष लेखन रूचि,अब तक 5० से ज़्यादा कविताओं और ग़ज़लों की रचनाएँ,व्यंगकार के रूप में भी किस्मत आजमाया और सफलता भी मिली,कई व्यंग दिल्ली के समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुए और काफ़ी पसंद किए गये एवं नोएडा और आसपास के क्षेत्रों के कई कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ,फिर भी इसे अभी लेखनी की शुरुआत कहता हूँ और उम्मीद करता हूँ की भविष्य में हिन्दी और साहित्य के लिए हमेशा समर्पित रहूँगा.लोगों का मनोरंजन करना और साथ ही साथ अपनी रचनाओं के द्वारा कुछ अच्छे सार्थक बातों का प्रवाह करना भी मेरा एक खास उद्देश्य होता है.अंतर्जाल पर मुस्कुराते पल-कुछ सच कुछ सपने के माध्यम से सक्रिय. ई-मेल- voice.vinod@gmail.com
मंगलवार, 4 मई 2010
ग़ज़ल
सुहाना हो भले मौसम मगर अच्छा नहीं लगता
सफर में तुम नहीं हो तो सफर अच्छा नहीं लगता
फिजा में रंग होली के हों या मंजर दीवाली के
मगर जब तुम नहीं होते ये घर अच्छा नहीं लगता
जहाँ बचपन की यादें हों कभी माँ से बिछड़ने की
भले ही खूबसूरत हो शहर अच्छा नहीं लगता
परिन्दे जिसकी शाखों पर कभी नग्में नहीं गाते
हरापन चाहे जितना हो शजर अच्छा नहीं लगता
तुम्हारे हुश्न का ये रंग सादा खूबसूरत है
हिना के रंग पर कोई कलर अच्छा नहीं लगता
तुम्हारे हर हुनर के हो गये हम इस तरह कायल
हमें अपना भी अब कोई हुनर अच्छा नहीं लगता
निगाहें मुंतजिर मेरी सभी रस्तों की है लेकिन
जिधर से तुम नहीं आते उधर अच्छा नहीं लगता
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
मेरा हृदय अलंकृत
मेरा हृदय अलंकृत होकर
करे न क्यों परिहास!
उसे मिला है-
मुग्ध चंद्रिका-सा अनुरंजित हास!
बनी उदासी की रेखाएँ
मुस्कानों का आलेखन!
अनुरागी मन करता नर्तन
पाकर सुख का संवेगन!
चाहत की हर
सखी कर रचाती तृप्तिपूर्ण मधुरास!
उसे मिला है-
मुग्ध चंद्रिका-सा अनुरंजित हास!
बूँद-बूँद में प्रीत सजाकर
जैसे सज जाता सावन!
आशाओं की परिभाषा में
जुड़े शब्द कुछ मनभावन!
प्रणय-लता हो
रही सुहागिन पाकर समन-सुवास!
उसे मिला है-
मुग्ध चंद्रिका-सा अनुरंजित हास!
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नाम - रावेंद्रकुमार रवि
जन्म - 02.05.1966 (बरेली)
शैक्षिक योग्यताएँ - एम.एस-सी. (गणित), एल.टी. (विज्ञान), हिंदी में सृजनात्मक लेखन में डिप्लोमा ।
सृजन-विधाएँ - बालकथा, बालकविता, लघुकथा, नवगीत, समीक्षा ।
प्रकाशन -1983 से निरंतर लेखन एवं सभी विधाओं में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन । पहली बालकहानी नंदन में और पहली बालकविता अमर उजाला में प्रकाशित । यूनिसेफ और एकलव्य द्वारा एक-एक चित्रकथा-पुस्तक, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा सृजनात्मक शिक्षा के अंतर्गत गणित की गतिविधि-पुस्तक "वृत्तों की दुनिया" और सौ से अधिक जानी-पहचानी पत्रिकाओं, कुछ संकलनों व पत्रों के साहित्यिक परिशिष्टों में साढ़े तीन सौ से अधिक रचनाएँ प्रकाशित । एक-एक कहानी का राजस्थानी, सिंधी व अँगरेज़ी में अनुवाद । कुछ अंतरजाल पत्रिकाओं पर भी रचनाएँ प्रकाशित ।
रुचियाँ -साहित्य-सर्जन, छायांकन, बाग़वानी, पर्यटन ।
संप्रति -शिक्षक (विज्ञान/गणित), कंप्यूटर मास्टर ट्रेनर (इंटेल) ।
संपादन -अंतरजाल-पत्रिकाएँ : सरस पायस और हिंदी का शृंगार ।
प्रकाशित पुस्तकें - यूनीसेफ, लखनऊ द्वारा 2002 में प्रकाशित चित्रकथा-पुस्तक ''चकमा''. एकलव्य, भोपाल द्वारा 2003 में प्रकाशित चित्रकथा-पुस्तक "नन्हे चूज़े की दोस्त'', नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा 2008 में सृजनात्मक शिक्षा के अंतर्गत प्रकाशित गणित की गतिविधि-पुस्तक "वृत्तों की दुनिया"।
पुरस्कार (साहित्य) -स्वर्ण पदक विजेता, हिंदी में सृजनात्मक लेखन में डिप्लोमा, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, 2005 (डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, राष्ट्रपति, भारत द्वारा स्वर्ण पदक से विभूषित)
स्थायी पता - कमल-कुंज, बड़ी बिसरात रोड, हुसैनपुरा, शाहजहाँपुर (उ.प्र.) - 242 001.
पत्र-संपर्क -राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, चारुबेटा, खटीमा, ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत -262308 मोबाइल -09897614866 ई-मेल- Raavendra.Ravi@gmail.com